10 Life-Changing Shlokas from the Bhagwat Geeta That Can Transform Your Life Introduction श्रीकृष्ण कहते हैं — जब जीवन में अंधकार हो, जब सही निर्णय मुश्किल हो जाए, तब गीता के श्लोक दीपक बनकर मार्ग दिखाते हैं।Shri Krishna says — When life is clouded with darkness, when decisions become difficult, the verses of the Bhagwat Geeta act as a guiding light. श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक जीवन जीने की कला है।The Bhagwat Geeta is not just a religious scripture, but a practical manual for living. 1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन You have the right to work, but not to the fruits thereof📖 Chapter 2, Shloka 47 👉 “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं।”👉 Your duty is to perform action without attachment to the outcome. 2. योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय Perform your duty with equanimity📖 Chapter 2, Shloka 48 👉 योग में स्थित होकर, आसक्ति को त्याग कर कर्म करो।👉 Act with a balanced mind, abandoning attachment. 3. न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् No one can remain without action even for a moment📖 Chapter 3, Shloka 5 👉 प्रकृति के प्रभाव से हर कोई कुछ न कुछ करता ही रहता है।👉 All are compelled to act by their nature. 4. क्रोध से भ्रम होता है, भ्रम से स्मृति का नाश होता है Anger leads to delusion, which causes memory loss📖 Chapter 2, Shlokas 62–63 👉 इंद्रियों का विषयों में आसक्त होना अंततः विनाश की ओर ले जाता है।👉 Attachment leads to desire, then anger, confusion, and finally destruction. 5. न जायते म्रियते वा कदाचित् The soul is never born and never dies📖 Chapter 2, Shloka 20 👉 आत्मा अमर, अविनाशी और अजर है।👉 The soul is eternal, indestructible, and beyond birth or death. 6. जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह भी अच्छा हो रहा है Whatever happened was good, whatever is happening is also good📘 (Gita essence – widely quoted though not a direct verse) 👉 श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि जीवन में जो हो रहा है, वह किसी बड़े उद्देश्य का भाग है।👉 Everything happens for a reason — trust the divine plan. 7. न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते Nothing is more purifying than knowledge📖 Chapter 4, Shloka 38 👉 ज्ञान ही आत्मा की मुक्ति का साधन है।👉 True knowledge liberates and purifies the self. 8. आपूर्यमाणम् अचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् Desires may come like rivers into the ocean, but the wise remain unmoved📖 Chapter 2, Shloka 70 👉 इच्छाएं जीवन में आती रहेंगी, पर जो स्थिर चित्त है, वही शांत रहता है।👉 A wise person is not disturbed by desires. 9. अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते To those who worship Me alone, I take care of their needs📖 Chapter 9, Shloka 22 👉 भगवान अपने भक्तों का योग और क्षेम स्वयं संभालते हैं।👉 The Lord personally preserves what the devotee has and provides what is lacking. 10. सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज Surrender unto Me alone📖 Chapter 18, Shloka 66 👉 मुझमें पूरी तरह समर्पण करो, मैं तुम्हें पापों से मुक्त कर दूँगा।👉 Abandon all duties and surrender unto Me. I shall deliver you from all sins. Conclusion इन श्लोकों में छिपा ज्ञान केवल धार्मिक उपदेश नहीं, बल्कि जीवन की गहराईयों को समझने की कुंजी है।These shlokas are not just religious verses but keys to understanding the depth of life. यदि हम इन श्लोकों को मन, वचन और कर्म से आत्मसात करें, तो जीवन शांत, सफल और दिव्य हो सकता है।If we truly live these teachings, life becomes peaceful, purposeful, and divine. To Know More About Bhagwat Geeta Click Here. Lord Vishnu is known as the preserver and protector in Hinduism. Whenever evil rises and dharma declines, he incarnates in various forms to restore balance. Click Here to read the 24 major avatars as described in the Puranas.
भगवान के 24 अवतार | भागवत पुराण की रहस्यमयी कथाएँ
प्रस्तावना – जब भगवान ने स्वयं लिया अवतार सनातन धर्म का सबसे दिव्य, पवित्र और रहस्यमयी ग्रंथ — “भागवत महापुराण”। यह केवल एक पुराण नहीं है, यह तो भगवान श्रीहरि के लीला, प्रेम, और करुणा की जीवंत कथा है। इस ग्रंथ में हमें जानने को मिलता है कि जब-जब संसार में अधर्म बढ़ा, तब-तब भगवान ने स्वयं पृथ्वी पर जन्म लिया। क्या आप जानते हैं?भागवत पुराण में भगवान के 24 अवतारों का वर्णन है — हर एक अवतार किसी विशेष उद्देश्य के लिए हुआ। यह ब्लॉग आपको हर अवतार की संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली झलक देगा। 🌸 1. सनक, सनंदन, सनातन और सनत कुमार चार ब्रह्मचारी ऋषि, जो ज्ञान और भक्ति के प्रतीक बने। इन्होंने संसार को वैराग्य और तत्वज्ञान का उपदेश दिया। 🐗 2. वाराह अवतार जब पृथ्वी रसातल में डूब गई थी, तब भगवान ने वराह रूप लेकर उसे अपने दांतों पर उठाया और पुनः स्थान पर स्थापित किया। 🎵 3. नारद अवतार देवर्षि नारद — भगवान के एक ऐसे अवतार, जो संगीत, भक्ति और ज्ञान के प्रतीक हैं। वे सभी युगों में घूमते हैं और हरि नाम का प्रचार करते हैं। ⛰️ 4. नर-नारायण अवतार भगवान ने हिमालय में कठोर तप करके धर्म की स्थापना की। यह अवतार आत्मसंयम और योग का प्रतीक है। 🔥 5. कपिल मुनि अवतार इन्होंने “सांख्य दर्शन” की रचना की और आत्मा व परमात्मा के भेद का ज्ञान दिया। 🙏 6. दत्तात्रेय अवतार अत्रि ऋषि के पुत्र के रूप में जन्मे। इन्होंने संसार को ब्रह्मज्ञान और भक्ति का सच्चा अर्थ समझाया। 🪔 7. यज्ञ अवतार देवताओं के रक्षक बनकर यज्ञ अवतार ने धर्म की रक्षा की और अधर्मियों का विनाश किया। 🧘♂️ 8. ऋषभदेव अवतार राजा नाभि के पुत्र के रूप में प्रकट होकर, इन्होंने सांसारिक मोह का त्याग कर मोक्ष का मार्ग दिखाया। 🐟 9. मत्स्य अवतार जलप्रलय के समय, भगवान ने मछली का रूप धारण किया और मनु को समस्त ज्ञान और वेदों की रक्षा के लिए सुरक्षित किया। 🐢 10. कूर्म अवतार समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत को कछुए के रूप में अपनी पीठ पर उठाया ताकि अमृत निकाला जा सके। 🧴 11. धन्वंतरि अवतार भगवान चिकित्सा के देवता बनकर अमृत कलश के साथ प्रकट हुए। आयुर्वेद का मूल इन्हीं से माना जाता है। 💫 12. मोहिनी अवतार एकमात्र स्त्री रूप में भगवान ने मोहिनी बनकर दैत्यों को मोहित किया और अमृत देवताओं को बांट दिया। 🦁 13. नरसिंह अवतार भगवान ने आधे सिंह और आधे मानव रूप में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की। 👣 14. वामन अवतार एक छोटे ब्राह्मण बालक के रूप में आकर दैत्यराज बलि से तीन पग में संपूर्ण पृथ्वी मांग ली। 🪓 15. परशुराम अवतार भगवान ने अत्याचारी क्षत्रियों को समाप्त करने के लिए परशुराम रूप में जन्म लिया। ये आज भी अमर माने जाते हैं। 📚 16. वेदव्यास अवतार महान ऋषि जिन्होंने वेदों को चार भागों में विभाजित किया और महाभारत जैसे ग्रंथों की रचना की। 🏹 17. श्रीराम अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण का वध कर धर्म और मर्यादा की पुनर्स्थापना की। 🐚 18. श्रीकृष्ण और बलराम अवतार द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया और बलराम के साथ मिलकर धर्म का संचालन किया। ☸️ 19. बुद्ध अवतार भगवान ने सिद्धार्थ के रूप में जन्म लेकर ‘अहिंसा’ और ‘मध्य मार्ग’ का संदेश दिया। 🐎 20. कल्कि अवतार (आने वाला अवतार) कलियुग के अंत में, भगवान श्वेत घोड़े पर सवार होकर अधर्म का विनाश करेंगे और सतयुग की स्थापना करेंगे। 💠 अन्य अवतार (21 से 24 तक)* भागवत में चार और अवतारों का वर्णन संक्षेप में मिलता है — हंस, हयग्रीव, प्रभुदत्त, और भगवान के विभूतिरूप अवतार जो समय के अनुसार प्रकट होते रहते हैं। 🌺 क्यों महत्वपूर्ण हैं ये अवतार? इन सभी अवतारों में एक बात समान है — जब-जब संसार में अधर्म बढ़ा, तब-तब भगवान ने अवतार लिया। यह अवतार केवल धार्मिक प्रतीक नहीं हैं, यह हमें हर परिस्थिति में सही मार्ग पर चलने, अन्याय के विरुद्ध खड़े होने और आत्मा की चेतना को जागृत करने की प्रेरणा देते हैं। 🔔 आपके लिए एक संदेश 👉 जब भी मन विचलित हो, जब भी लगता है कि अंधकार घना है, तब केवल एक ही उपाय है — “भगवान की कथा सुनना और मन को उनके चरणों में लगाना।” भागवत पुराण हमें यही सिखाता है कि भगवान अपने भक्तों को कभी नहीं छोड़ते। चाहे संकट कितना भी बड़ा क्यों न हो, ईश्वर की लीला में हर पीड़ा भी एक प्रेम बन जाती है। 🙏 निष्कर्ष – जीवन को बदलने वाली कथा भगवत पुराण के ये अवतार न केवल धार्मिक संदर्भ हैं, बल्कि यह हमारे अंतर्मन के जागरण के प्रतीक हैं। 🕉️ जो व्यक्ति सच्चे मन से भगवान की लीलाओं का चिंतन करता है, वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। 📌 क्या आपने इन अवतारों के बारे में पहले सुना था? कमेंट करें और बताएं कि कौन-सा अवतार आपको सबसे अधिक प्रेरणादायक लगता है। अगर आपको यह लेख अच्छा लगा हो, तो इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर शेयर करें। 🔔 सनातन धर्म की और कहानियाँ पढ़ने के लिए ब्लॉग को सब्सक्राइब करें। 🙏 जय श्रीकृष्ण! जय श्रीराम! यह भी पढ़ें I हमारे youtube चैनल से भी जुड़ें I
Nageshwar Jyotirling- 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व
Nageshwar Jyotirling :नागेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 पवित्र ज्योतिर्लिंगों में से एक है, जो गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में अत्यधिक धार्मिक महत्व रखता है और शिव भक्तों के लिए विशेष स्थान है। नागेश्वर का शाब्दिक अर्थ है “नागों का स्वामी,” और यह शिवजी की नागों के साथ जुड़ी शक्ति को दर्शाता है। यहां शिवजी को नागराज वासुकी के साथ प्रतिष्ठित माना जाता है, जो उन्हें विष से मुक्ति और संकटों से बचाने वाला देवता बनाता है। Nageshwar Jyotirling : नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का पौराणिक महत्व: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के साथ एक पुरानी और प्राचीन कथा जुड़ी हुई है। मान्यता के अनुसार, एक बार “दारुका” नाम का राक्षस अपनी दुष्टताओं से पूरी धरती पर आतंक फैला रहा था। उसने “सुप्रिया” नाम के एक शिव भक्त को भी बंदी बना लिया था, जो शिवजी का परम भक्त था। सुप्रिया ने कठिनाईयों में भी भगवान शिव की उपासना जारी रखी। शिवजी उसकी प्रार्थनाओं से प्रसन्न हुए और प्रकट होकर दारुका का वध किया। इस घटना के बाद शिवजी ने उस स्थान पर स्वयंभू लिंग के रूप में प्रकट होने का संकल्प लिया। उसी स्थान को अब नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है। धार्मिक महत्व: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से भक्तों को सभी प्रकार के विष, डर, और संकट से मुक्ति मिलती है। यहाँ शिवजी को विशेष रूप से उनके नीलकंठ रूप में पूजा जाता है, जिसने समुद्र मंथन के समय समस्त विष का पान किया था। भक्त मानते हैं कि इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने से जीवन के सभी संकटों का अंत हो जाता है और मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति मिलती है। Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का स्थान और मंदिर की विशेषताएं: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के द्वारका के पास स्थित है। यह मंदिर अद्वितीय है क्योंकि इसमें भगवान शिव की एक विशाल प्रतिमा है, जो 80 फीट ऊंची है और मंदिर के मुख्य आकर्षण का केंद्र है। मंदिर की वास्तुकला पारंपरिक और आधुनिक कला का मिश्रण है, और यहाँ पर शिवलिंग की विशेष पूजा होती है। ज्योतिर्लिंग का आकार अन्य ज्योतिर्लिंगों से अलग है, जो इसे अनोखा बनाता है। पौराणिक कथा और मान्यता: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कथा यह है कि एक बार दारुका नामक राक्षस ने अपने दुष्ट कार्यों से पृथ्वी पर आतंक फैला रखा था। वह अपनी पत्नी दारुकी के साथ जंगल में एक शक्तिशाली शक्ति के बल पर अपने अधीन बहुत से निर्दोष लोगों को बंदी बनाता था। इसमें एक सुप्रिया नामक शिव भक्त भी था, जिसने बंदी रहते हुए भी भगवान शिव की आराधना करना बंद नहीं किया। उसकी प्रार्थनाओं को सुनकर भगवान शिव प्रकट हुए और राक्षस दारुका का संहार किया। इस घटना के बाद, शिवजी ने वहां स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर भक्तों की रक्षा करने का आश्वासन दिया। इस ज्योतिर्लिंग को नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना गया, जो बुराई और अधर्म के खिलाफ शिवजी की विजय का प्रतीक है। Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर मंदिर की वास्तुकला और विशेषताएं: धार्मिक अनुष्ठान और पूजन विधि: Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की भौगोलिक स्थिति: मंदिर तक पहुँचने के साधन: महत्त्वपूर्ण त्यौहार: Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की महत्ता: यह ज्योतिर्लिंग बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इसे संकटों से छुटकारा दिलाने वाला स्थान माना जाता है, और जो व्यक्ति सच्चे हृदय से भगवान शिव की उपासना करता है, उसे यहां आकर मानसिक शांति और सुख की प्राप्ति होती है। इस मंदिर की यात्रा करने वाले भक्तों को जीवन में आने वाली कठिनाइयों से उबरने में सहायता मिलती है और वे शिवजी की कृपा प्राप्त करते हैं। यह भी पढ़ेI शारदीय नवरात्र 2024 : माँ दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए कीजिये शुभ मुहूर्त में घट स्थापना क्या आपने हमारे फेसबुक पेज चेक किया? अभी कीजियेI
सर्व पितृ अमावस्या 2024: महत्त्व, तिथि एवं मुहूर्त
सर्व पितृ अमावस्या 2024 में 2 अक्टूबर को पड़ रही है। यह दिन हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन उन सभी पूर्वजों (पितरों) की आत्माओं को श्रद्धांजलि दी जाती है, जिनका श्राद्ध या तर्पण किसी कारणवश नहीं किया जा सका होता है। इस दिन को पितृ अमावस्या या महालय अमावस्या भी कहा जाता है, और इसे श्राद्ध पक्ष की समाप्ति का प्रतीक माना जाता है। सर्व पितृ अमावस्या का महत्व: सर्व पितृ अमावस्या 2024 का श्राद्ध मुहूर्त पंचांग के अनुसार इस प्रकार है: तिथि और समय: महत्वपूर्ण मुहूर्त: सर्व पितृ अमावस्या के लिए उपयुक्त समय: पितरों के तर्पण और श्राद्ध कर्म का सबसे शुभ समय दिन के 11:47 बजे से लेकर 03:49 बजे तक रहेगा। इस दौरान किए गए कर्म पितरों की शांति के लिए अत्यंत फलदायक माने जाते हैं। इस समय के भीतर पिंडदान, तर्पण, और ब्राह्मणों को भोजन कराने का कार्य करना चाहिए। सर्व पितृ अमावस्या में क्या करना चाहिए: ध्यान रखने योग्य बातें: सर्व पितृ अमावस्या पूर्वजों के प्रति आभार और सम्मान व्यक्त करने का दिन है, और इसे पूरी श्रद्धा और विधि-विधान से मनाने से परिवार को पितरों का आशीर्वाद मिलता है। यह भी पढ़ेंI हमारे फेसबुक पेज से भी जुड़िये I
नारायण नागबली पूजा की संपूर्ण जानकारी
नारायण नागबली पूजा हिंदू धर्म में एक विशेष और पवित्र अनुष्ठान है, जिसे जीवन में आने वाली समस्याओं को दूर करने, पूर्वजों की आत्माओं को शांति प्रदान करने, और नागों को अनजाने में हुई हानि से उत्पन्न दोषों से मुक्ति पाने के लिए किया जाता है। यह वैदिक अनुष्ठान दो भागों में विभाजित होता है: नारायण बलि और नाग बलि। इन दोनों अनुष्ठानों का अपना विशेष महत्व और आध्यात्मिक महत्व है। नारायण बलि का उद्देश्य उस आत्मा को शांति प्रदान करना है, जो आकस्मिक मृत्यु या अधूरी इच्छाओं के कारण भटक रही हो। इसके साथ ही, नाग बलि उन पापों का प्रायश्चित करने के लिए की जाती है जो नागों या सर्पों को नुकसान पहुंचाने से होते हैं। यह पूजा कर्मफल से मुक्ति दिलाती है और जीवन में सुख, समृद्धि और शांति लाती है। नारायण नागबली पूजा का महत्व नारायण नागबली पूजा की प्रक्रिया नारायण बलि अनुष्ठान नारायण बलि का मुख्य उद्देश्य उन आत्माओं को शांति प्रदान करना है, जो किसी कारणवश अपने पारलौकिक यात्रा में अटकी हुई हैं। इस अनुष्ठान में आटे या चावल से एक प्रतीकात्मक मानव आकृति बनाई जाती है, जो उस आत्मा का प्रतीक होती है जिसे मुक्ति दिलानी होती है। नाग बलि अनुष्ठान नाग बलि अनुष्ठान का उद्देश्य नागों या सर्पों को नुकसान पहुंचाने के कारण हुए पापों का प्रायश्चित करना होता है। इस अनुष्ठान में नाग देवता की पूजा की जाती है और उनसे क्षमा याचना की जाती है। पूजा की अवधि नारायण नागबली पूजा सामान्यतः तीन दिनों तक चलती है। प्रत्येक दिन अलग-अलग अनुष्ठान और पूजा विधियां होती हैं। पहले दिन नारायण बलि की जाती है, दूसरे दिन नाग बलि होती है, और तीसरे दिन हवन और अन्य समापन अनुष्ठान होते हैं। त्र्यंबकेश्वर का महत्व त्र्यंबकेश्वर मंदिर, जो महाराष्ट्र में स्थित है, नारायण नागबली पूजा के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और पूर्वजों से संबंधित दोषों के निवारण के लिए विशेष स्थान रखता है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर गोदावरी नदी का उद्गम स्थल भी है, जिससे इस स्थान की धार्मिक महत्ता और भी बढ़ जाती है। हालांकि त्र्यंबकेश्वर को पूजा के लिए प्रमुख स्थल माना जाता है, लेकिन यह पूजा अन्य पवित्र स्थलों पर भी की जा सकती है। नारायण नागबली पूजा के लाभ नारायण नागबली पूजा भक्तों के लिए अनेक लाभ प्रदान करती है, जो इसे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ करते हैं। इस पूजा के प्रमुख लाभों में शामिल हैं: हमारे फेसबुक पेज से जुड़िये II यह भी पढ़िए II
तर्पण विधि और महत्त्व : संपूर्ण जानकारी
तर्पण विधि: तर्पण हिंदू धर्म की एक प्राचीन और पवित्र धार्मिक परंपरा है, जिसमें जल अर्पण कर अपने पितरों, देवताओं और ऋषियों को संतुष्ट किया जाता है। “तर्पण” शब्द संस्कृत के “तृप” धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है ‘संतुष्टि करना’ या ‘प्रसन्न करना’। यह क्रिया मुख्य रूप से पूर्वजों (पितरों) की आत्मा की शांति और उन्हें संतुष्ट करने के लिए की जाती है, ताकि उनकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो और उनकी कृपा व आशीर्वाद हमारे जीवन में बना रहे। तर्पण का विशेष महत्व पितृपक्ष के दौरान होता है, जो श्राद्ध कर्म का एक अभिन्न हिस्सा है। इसके अलावा, तर्पण का आयोजन महत्वपूर्ण पर्वों जैसे अमावस्या, ग्रहण, और संक्रांति के अवसर पर भी किया जाता है। इस प्रक्रिया का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यधिक है, और यह हमारे पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक प्रमुख साधन है। तर्पण का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व तर्पण विधि: तर्पण कब और कैसे किया जाता है? तर्पण मुख्य रूप से पितृपक्ष के दौरान किया जाता है, जो भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इसके अलावा, तर्पण निम्नलिखित अवसरों पर भी किया जाता है: तर्पण विधि: तर्पण विधि में श्रद्धा और समर्पण का विशेष महत्व होता है। इस प्रक्रिया में जल अर्पित किया जाता है, जो पितरों की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए होता है। तर्पण करते समय कुछ विशेष सामग्रियों और मंत्रों का प्रयोग किया जाता है। तर्पण के लिए आवश्यक सामग्री: तर्पण की प्रक्रिया: तर्पण करने से पहले स्नान करना और शुद्ध वस्त्र धारण करना अनिवार्य होता है। शुद्धि और पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। तर्पण के नियम: तर्पण में वर्जित कार्य: इसे भी पढ़े I हमारे फेसबुक पेज से जुड़िये II
पितृपक्ष 2024: परंपरा, महत्व, और कर्मकांड की विस्तृत जानकारी
पितृपक्ष, हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण समय होता है, जिसमें लोग अपने पितरों (पूर्वजों) का स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है। पितृपक्ष का प्रमुख उद्देश्य पितरों की आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ, तर्पण, और दान का आयोजन करना है। यह धार्मिक क्रिया यह विश्वास दिलाती है कि हमारे पूर्वज, जो अब दिवंगत हो चुके हैं, उनकी आत्माओं को शांति प्राप्त होती है और वे हमें अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। यह पर्व 15 दिनों का होता है, जो भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। प्रत्येक दिन को एक विशिष्ट तिथि के रूप में मान्यता दी जाती है, जिसमें पितरों के श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। इस अवधि को बेहद पवित्र और धार्मिक माना जाता है, और इसका पालन करते समय कई नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। पितृपक्ष का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व पितृपक्ष का उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है, और इसका महत्व युगों से चला आ रहा है। मान्यता है कि इस समय यमराज, जो मृत्यु के देवता हैं, मृतात्माओं को पृथ्वी पर आने की अनुमति देते हैं ताकि वे अपने वंशजों द्वारा किए गए तर्पण और श्राद्ध कर्मों को स्वीकार कर सकें। यह अवसर पितरों को संतुष्ट करने और उनकी आत्माओं को शांति प्रदान करने के लिए अनुकूल माना जाता है। भारतीय समाज में पितृपक्ष की गहरी धार्मिक मान्यता है कि यदि इस दौरान श्राद्ध नहीं किया गया, तो पितर असंतुष्ट रहते हैं, और उनकी संताने जीवन में कठिनाइयों का सामना कर सकती हैं। इसके विपरीत, श्राद्ध के दौरान किए गए तर्पण और दान पितरों को प्रसन्न करते हैं, और उनका आशीर्वाद जीवन में सुख, समृद्धि, और शांति लाता है। पितृपक्ष में श्राद्ध कैसे करें? श्राद्ध कर्म की विधि एक महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया है, जिसमें समर्पण और श्रद्धा का विशेष स्थान होता है। श्राद्ध कर्म को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है: 1. तर्पण तर्पण श्राद्ध कर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें जल अर्पित किया जाता है। तर्पण का अर्थ होता है संतोष करना, और यह क्रिया पितरों को संतुष्ट करने के लिए की जाती है। इस क्रिया में जल, तिल, जौ, और कुश का उपयोग किया जाता है। इसे करते समय पितरों के नाम, गोत्र, और तिथि का उच्चारण किया जाता है, और तीन बार जल अर्पित किया जाता है। तर्पण करते समय संकल्प लिया जाता है कि पितरों की आत्मा को शांति और संतोष प्राप्त हो। 2. पिंडदान पिंडदान श्राद्ध का एक और अनिवार्य हिस्सा है। इसमें चावल और तिल से बने पिंड पितरों को अर्पित किए जाते हैं। ये पिंड पितरों की आत्मा को भोजन के रूप में समर्पित होते हैं। ऐसा माना जाता है कि पिंडदान से पितर संतुष्ट होते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है। पिंडदान करते समय श्राद्धकर्ता पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करता है। 3. ब्राह्मण भोज श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना भी अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यह विश्वास किया जाता है कि ब्राह्मण भोजन द्वारा पितर संतुष्ट होते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। भोजन के दौरान सात्विक आहार पर विशेष ध्यान दिया जाता है, जिसमें खीर, पूरी, सब्जी, और अन्य पारंपरिक व्यंजन शामिल होते हैं। मांसाहार और तामसिक पदार्थों से परहेज किया जाता है। ब्राह्मण भोजन के बाद उन्हें दक्षिणा और दान देना भी शुभ माना जाता है। 4. जरूरतमंदों को दान श्राद्ध कर्म के दौरान ब्राह्मणों के साथ-साथ जरूरतमंदों को भी दान देना अत्यंत शुभ माना जाता है। दान में अन्न, वस्त्र, और धन देना चाहिए। यह कर्म न केवल पितरों को संतुष्ट करता है, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी का भी प्रतीक होता है। पितृपक्ष में क्या नहीं करना चाहिए? पितृपक्ष के दौरान कुछ नियमों और वर्जनाओं का पालन करना आवश्यक होता है, ताकि श्राद्ध कर्म प्रभावी और पवित्र रहे। यह समय पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का होता है, इसलिए कुछ कार्यों से बचना चाहिए। 1. शुभ कार्यों का आयोजन पितृपक्ष को अशुभ समय माना जाता है, इसलिए इस दौरान विवाह, गृह प्रवेश, या अन्य शुभ कार्यों का आयोजन नहीं किया जाता। इस समय का उपयोग केवल पितरों की स्मृति और उनकी आत्मा की शांति के लिए किया जाता है। 2. मांस और मदिरा का सेवन पितृपक्ष के दौरान मांस और मदिरा का सेवन वर्जित होता है। इस समय सात्विक आहार का पालन करना चाहिए, जिसमें प्याज, लहसुन, और तामसिक खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं किया जाता है। भोजन शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। 3. नए वस्त्र या सामान की खरीदारी पितृपक्ष के दौरान नए वस्त्र, आभूषण, या अन्य सामान खरीदने से बचा जाता है। यह समय पितरों के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने का होता है, इसलिए भौतिक सुख-सुविधाओं पर जोर नहीं दिया जाता। 4. शारीरिक संबंध पितृपक्ष के दौरान संयम और आत्मनियंत्रण का पालन किया जाता है। शारीरिक संबंधों से दूर रहना चाहिए और मानसिक और शारीरिक शुद्धि बनाए रखनी चाहिए। 5. बाल कटवाना और नाखून काटना पितृपक्ष के दौरान बाल कटवाना या नाखून काटने से परहेज किया जाता है। यह कार्य अशुभ माने जाते हैं और पितरों के प्रति अनादर का प्रतीक होते हैं। 6. उत्सव और आनंद पितृपक्ष के दौरान किसी भी प्रकार के आनंद और उत्सव से बचना चाहिए। संगीत, नृत्य, और अन्य मनोरंजन के कार्य इस समय उचित नहीं माने जाते। पितृपक्ष में पालन किए जाने वाले अन्य नियम पितृपक्ष में कुछ अन्य सामान्य नियमों का पालन भी आवश्यक होता है। जैसे: श्राद्ध तिथियों का महत्व पितृपक्ष के प्रत्येक दिन को विशेष तिथि के रूप में जाना जाता है, और यह तिथि पितरों की मृत्यु की तिथि पर आधारित होती है। श्राद्ध तिथियों के आधार पर निम्नलिखित श्राद्ध होते हैं: पितृपक्ष का समापन और फल पितृपक्ष के अंत में सर्वपितृ अमावस्या का दिन आता है, जो पितरों का विदाई दिवस माना जाता है। इस दिन विशेष पूजा और दान का आयोजन किया जाता है। श्राद्ध कर्म के समापन पर ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को प्रसन्नता के साथ विदा किया जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि पितृपक्ष के दौरान किए गए श्राद्ध कर्म से पितर संतुष्ट होते हैं, और उनका आशीर्वाद आने वाली पीढ़ियों को सुख-समृद्धि और शांति
धन और समृद्धि पाने के लिए करें श्री सूक्त का नियमित पाठ
धन और समृद्धि प्राप्त करने के लिए श्री सूक्त का पाठ नियमित रूप से करना चाहिए, श्री सूक्त की रचना प्राचीन वैदिक काल में हुई है, और यह ऋग्वेद का एक महत्वपूर्ण भाग है। इसकी रचना किसी एक व्यक्ति या ऋषि द्वारा नहीं की गई थी, बल्कि यह वेदों के अन्य मंत्रों की तरह ही ऋषियों द्वारा दिव्य प्रेरणा से श्रवण के माध्यम से प्राप्त हुआ। इसलिए इसे अपौरुषेय (जिसका कोई मानव रचनाकार नहीं) माना जाता है। यह देवताओं से सीधे प्राप्त होने वाले मंत्रों का संकलन है, जिसे ऋषियों ने सुना और फिर उसे लिपिबद्ध किया। श्री सूक्त की रचना का प्रमुख उद्देश्य देवी लक्ष्मी की स्तुति और उनके आह्वान के माध्यम से धन और समृद्धि, ऐश्वर्य और सुख की प्राप्ति करना था। यह स्तोत्र उन मंत्रों का समूह है, जो लक्ष्मी देवी की कृपा पाने के लिए गाए जाते हैं, क्योंकि लक्ष्मी देवी को ऐश्वर्य, सौभाग्य, धन और समृद्धि की देवी माना जाता है। श्री सूक्त की रचना के कारण: श्री सूक्त वेदों में वर्णित एक अत्यंत प्रभावशाली और पवित्र स्तोत्र है, जो लक्ष्मी देवी की स्तुति और पूजा के लिए समर्पित है। यह ऋग्वेद के खंड से लिया गया है और इसमें देवी लक्ष्मी की महिमा का वर्णन किया गया है। श्री सूक्त के पाठ से धन और समृद्धि, सुख-शांति, वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। श्री सूक्त के पाठ का लाभ: श्री सूक्त के पाठ की विधि: श्री सूक्त का पाठ किसी भी समय किया जा सकता है, लेकिन इसे सुबह और संध्या समय में करना सबसे शुभ माना गया है। श्री सूक्त के पाठ के लिए निम्नलिखित विधि का पालन किया जा सकता है: 1. स्नान और स्वच्छता: 2. आसन और आस-पास की व्यवस्था: 3. श्री सूक्त का पाठ: 4. मंत्र जाप: 5. नैवेद्य और आरती: 6. समापन: 7. विशेष समय: श्री सूक्त एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जो देवी लक्ष्मी की स्तुति में रचा गया है। यह मुख्यतः वैदिक संस्कृत में है और इसमें 15 ऋचाएं (श्लोक या मंत्र) होती हैं। ये मंत्र देवी लक्ष्मी की महिमा और उनके आह्वान से संबंधित हैं। नीचे सम्पूर्ण श्री सूक्त का पाठ संस्कृत में दिया गया है: श्री सूक्त (संस्कृत में): श्री सूक्त का समापन मंत्र: ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।। हम महादेवी का ध्यान करते हैं, जो भगवान विष्णु की पत्नी हैं। देवी लक्ष्मी हमें प्रेरणा और समृद्धि प्रदान करें। श्री सूक्त के पाठ से जीवन में आर्थिक, मानसिक और आत्मिक समृद्धि की प्राप्ति होती है। व्रत एवं त्यौहार || यह भी सुनिए
रिश्तों के बारे में श्री कृष्ण ने क्या कहा ?
रिश्तों को सुधारने के लिए, श्री कृष्ण के अनुसार क्या करना चाहिए, इस विषय को गहरे आध्यात्मिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है । श्री कृष्ण की शिक्षाएँ, विशेष रूप से भगवद गीता में, जीवन के हर पहलू के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं, जिनमें रिश्तों की जटिलताएँ भी शामिल हैं। उन्होंने कर्म, भक्ति, और ज्ञान के माध्यम से जीवन की समस्याओं का समाधान करने के सिद्धांत बताए हैं। जब रिश्तों में दरार आती है, तो श्री कृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि हमें संयम, धैर्य, प्रेम, और करुणा से काम लेना चाहिए। आइए इन सिद्धांतों को विस्तार से समझते हैं: 1. आत्म-निरीक्षण और आत्म-जागरूकता (Self-Reflection and Self-Awareness) रिश्तों में किसी भी प्रकार की समस्या होने पर श्री कृष्ण का पहला सुझाव है कि हम आत्म-निरीक्षण करें। श्री कृष्ण कहते हैं कि, हर व्यक्ति को अपने भीतर की सच्चाई को समझना चाहिए। जब रिश्तों में दरार आती है, तो हमें पहले यह देखना चाहिए कि क्या हमसे कोई गलती हुई है। आत्म-निरीक्षण का अर्थ है अपने कर्म, विचार, और व्यवहार का विश्लेषण करना। कई बार हम दूसरों को दोष देते हैं, जबकि समस्या हमारे भीतर भी हो सकती है। श्री कृष्ण ने सिखाया है कि जीवन में हर क्रिया का एक परिणाम होता है। इसलिए, रिश्तों में भी हमारे कर्मों का प्रभाव पड़ता है। हमें यह देखना चाहिए कि कहीं हमारे शब्द या कार्य तो उस दरार का कारण नहीं बने। आत्म-निरीक्षण हमें यह समझने में मदद करता है कि हम अपने व्यवहार में क्या सुधार कर सकते हैं ताकि रिश्ते को ठीक किया जा सके। 2. संवाद और समझदारी (Communication and Understanding) श्री कृष्ण कहते हैं कि, संवाद और समझदारी रिश्तों को मजबूत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गीता में उन्होंने कहा है कि किसी भी समस्या का समाधान संवाद के माध्यम से निकल सकता है। रिश्तों में दरार आने पर हमें खुलकर और ईमानदारी से संवाद करना चाहिए। बहुत बार लोग अपनी भावनाओं को छिपाते हैं या किसी बात को सही ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते, जिससे गलतफहमियाँ पैदा होती हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि, हमें अपनी भावनाओं और विचारों को स्पष्ट रूप से और शांतिपूर्वक व्यक्त करना चाहिए। साथ ही, हमें यह भी सुनने की क्षमता होनी चाहिए कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है। समझदारी से बातचीत करने से हम एक-दूसरे की स्थिति और भावनाओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं, जिससे समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। 3. क्षमा और करुणा (Forgiveness and Compassion) क्षमा करना एक ऐसा गुण है जिसे श्री कृष्ण ने अत्यधिक महत्व दिया है। श्री कृष्ण कहते हैं कि क्रोध और अहंकार को छोड़कर हमें क्षमाशीलता और करुणा का भाव अपनाना चाहिए। रिश्तों में कई बार ऐसी स्थितियाँ आती हैं जहाँ लोग एक-दूसरे से नाराज होते हैं या उनके बीच गलतफहमियाँ हो जाती हैं। ऐसे समय में, श्री कृष्ण सिखाते हैं कि हमें एक-दूसरे को माफ करने का गुण अपनाना चाहिए। गीता में, श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हर व्यक्ति से कभी न कभी गलती होती है, लेकिन महान वही है जो इन गलतियों को माफ कर सके। क्षमा करने से न केवल दूसरों के प्रति हमारी करुणा बढ़ती है, बल्कि यह हमारे अंदर के गुस्से और नकारात्मकता को भी दूर करती है। करुणा का अर्थ है दूसरों की भावनाओं को समझना और उन्हें स्वीकार करना। करुणा से भरे हुए व्यक्ति से कभी भी रिश्तों में तनाव नहीं आता, क्योंकि वह हर परिस्थिति में शांति और समझदारी से काम लेता है। इससे रिश्ते में मधुरता आती है 4. अहंकार का त्याग (Letting Go of Ego) अहंकार अक्सर रिश्तों में दरार का कारण बनता है। श्री कृष्ण ने गीता में अहंकार को सबसे बड़ा शत्रु बताया है। जब हम अपने अहंकार को अपने ऊपर हावी होने देते हैं, तो यह हमें दूसरों की भावनाओं को समझने से रोकता है। रिश्तों में दरार आने का एक मुख्य कारण अहंकार होता है। जब दोनों पक्ष अपने अहंकार के चलते एक-दूसरे से बात करना या माफी मांगना नहीं चाहते, तो समस्या और बड़ी हो जाती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें अपने अहंकार को त्यागकर विनम्रता का गुण अपनाना चाहिए। विनम्रता और समर्पण से हम एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और रिश्तों में आई दरार को दूर कर सकते हैं। 5. धैर्य और संतुलन (Patience and Balance) श्री कृष्ण की एक अन्य महत्वपूर्ण शिक्षा है धैर्य रखना। गीता में उन्होंने बार-बार धैर्य और संयम का महत्व बताया है। रिश्तों में अक्सर त्वरित निर्णय लेने या जल्दबाजी में प्रतिक्रिया देने से समस्या और बढ़ जाती है। हमें धैर्यपूर्वक समस्याओं का सामना करना चाहिए और सही समय पर उचित निर्णय लेना चाहिए। धैर्य के साथ-साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। श्री कृष्ण कहते हैं कि जीवन के हर पहलू में संतुलन होना चाहिए, चाहे वह काम हो, रिश्ते हों, या व्यक्तिगत भावनाएँ। जब हम संतुलन में रहते हैं, तो हम किसी भी समस्या का सामना शांतिपूर्ण और विवेकपूर्ण तरीके से कर सकते हैं। रिश्तों में भी संतुलन बनाए रखना आवश्यक है, ताकि एक-दूसरे की भावनाओं और जरूरतों को समझा जा सके। 6. प्यार और सम्मान (Love and Respect) श्री कृष्ण कहते हैं कि हर रिश्ते की नींव प्यार और सम्मान पर आधारित होती है। अगर हम एक-दूसरे के प्रति सच्चा प्यार और सम्मान महसूस करते हैं, तो किसी भी प्रकार की दरार को ठीक किया जा सकता है। प्यार का अर्थ केवल शारीरिक आकर्षण या भावनात्मक जुड़ाव से नहीं है, बल्कि इसका मतलब है एक-दूसरे के प्रति निःस्वार्थ भावना रखना। श्री कृष्ण ने सिखाया है कि जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं, तो उसमें स्वार्थ नहीं होना चाहिए। हमें उनकी खुशी और भलाई के लिए काम करना चाहिए। इसके अलावा, सम्मान का भी बड़ा महत्व है। जब हम किसी के विचारों, भावनाओं, और व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं, तो वह व्यक्ति हमारे प्रति और अधिक सकारात्मक भावना रखता है। सम्मान से रिश्ते में विश्वास बढ़ता है, जो किसी भी दरार को ठीक करने में मदद करता है। 7. कर्तव्यों का पालन (Fulfilling Duties) श्री कृष्ण ने गीता में कर्म योग की बात की है, जिसमें उन्होंने कर्तव्यों को निभाने के महत्व
नवरात्रि में कैसे करें माँ दुर्गा को प्रसन्न ?
सनातन धर्म में नवरात्रि एक प्रमुख पर्व है जो माता दुर्गा की पूजा और महायज्ञ के माध्यम से मनाया जाता है। यह पर्व भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व रखता है नवरात्रि का पर्व सनातन धर्म में माँ दुर्गा की पूजा के रूप में माना जाता है और इसे भारत भर में उत्साह से मनाया जाता है। यह पर्व आमतौर पर चैत्र नवरात्रि और शरद नवरात्रि में मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान, लोग नौ दिनों तक निराहार व्रत रखते हैं और देवी दुर्गा की पूजा करते हैं। प्रतिदिन अलग-अलग रूपों में देवी की पूजा की जाती है, जैसे कि शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ रूप माता दुर्गा के नौ अवतारों को प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी शक्ति और सामर्थ्य की पूजा की जाती है। नवरात्रि का महत्व यह है कि इसके माध्यम से हम मां दुर्गा की भक्ति करते हैं और उनकी कृपा और आशीर्वाद को प्राप्त करते हैं। इस पर्व के माध्यम से हम सात्त्विकता, शक्ति, और निर्मलता की प्राप्ति का प्रयास करते हैं, जो हमें धार्मिक और आध्यात्मिक उत्थान में सहायता करता है। इस दौरान, लोग मंदिरों में जाकर देवी की मूर्ति की पूजा करते हैं, भजन की गायन करते हैं और महिलाएं विशेष रूप से नवरात्रि के नौ दिनों के उपासना करती हैं। यह पर्व धार्मिक और सामाजिक आयोजनों का भी अवसर होता है, लोग बड़े- बड़े पंडालों और मंदिरों में भी भव्य प्रवचन, कथाएँ और संगीत समारोह का आयोजन करते हैं जिससे लोगों को एक-दूसरे के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। सामाजिक रूप से, नवरात्रि का उत्सव लोगों को एक साथ जोड़ता है और सामूहिक रूप से उत्साह, सामाजिक सद्भाव, और धार्मिक भावना को बढ़ाता है। नवरात्रि के अंत में, दशमी के दिन या दुर्गा दशमी के रूप में, लोग माँ दुर्गा के प्रति अपना आभार और भक्ति प्रकट करते हैं। इस दिन भजन की ध्वनि, आरती की धुन और मंदिरों में ध्वजारोहण की ध्वनि सुनाई जाती है। इस प्रकार, नवरात्रि का पर्व माँ दुर्गा की पूजा और भक्ति का एक महान उत्सव है जो धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नवरात्रि में जौ बोने का विधान है, जौ बोने के लिए ऐसा पात्र लें जिसमें मिट्टीभरने के बाद कलश रखने के लिए जगह बच जाए, एक साफ स्थान पर एक पाटी या चौकी लगाकर उस पर लाल कपडा बिछाकर इस पात्र को रख देना चाहिए, अब एक मिट्टी का कलश लेकर उसे अच्छे से साफ़ करके, जिस पात्र में जौ बोये गए हैं उसके ऊपर रख दें और कलश को शुद्ध जल से भर दें और थोडा गंगाजल भी मिला दें, कलश के गले में मौली बांधकर रोली से स्वस्तिक बना दें। कलश के अंदर फूल, इत्र, साबुत सुपारी, दूर्वा डाल दें। पाँच आम या अशोक के पत्ते लेकर कलश में डालकर कलश को किसी पात्र से ढक दें और इस पात्र में अक्षत भरकर इसके ऊपर एक नारियल लाल कपडे में लपेटकर रख दें। ध्यान रहे नारियल का मुख आपकी तरफ होना चाहिए। अब माँ दुर्गा की प्रतिमा या फोटो को चौकी पर स्थापित करें, माँ का आह्वान करें, दीप, धूप, फल- फूल, नैवेद्य समर्पित करें, माँ से अपने सभी कष्ट हरने और सभी मनोकामनाएं पूरी करने का निवेदन करें, इसके पश्चात आरती करें और प्रसाद वितरित करें। इन नौ दिनों में दुर्गा चालीसा का पाठ करने से मानसिक शांति मिलती है। इसलिए माँ दुर्गा चालीसा का पाठ अवश्य ही करना चाहिए। हमारे फेसबुक पेज से भी जुड़िये