Nageshwar Jyotirling :नागेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 पवित्र ज्योतिर्लिंगों में से एक है, जो गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है। यह मंदिर हिन्दू धर्म में अत्यधिक धार्मिक महत्व रखता है और शिव भक्तों के लिए विशेष स्थान है। नागेश्वर का शाब्दिक अर्थ है “नागों का स्वामी,” और यह शिवजी की नागों के साथ जुड़ी शक्ति को दर्शाता है। यहां शिवजी को नागराज वासुकी के साथ प्रतिष्ठित माना जाता है, जो उन्हें विष से मुक्ति और संकटों से बचाने वाला देवता बनाता है। Nageshwar Jyotirling : नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का पौराणिक महत्व: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के साथ एक पुरानी और प्राचीन कथा जुड़ी हुई है। मान्यता के अनुसार, एक बार “दारुका” नाम का राक्षस अपनी दुष्टताओं से पूरी धरती पर आतंक फैला रहा था। उसने “सुप्रिया” नाम के एक शिव भक्त को भी बंदी बना लिया था, जो शिवजी का परम भक्त था। सुप्रिया ने कठिनाईयों में भी भगवान शिव की उपासना जारी रखी। शिवजी उसकी प्रार्थनाओं से प्रसन्न हुए और प्रकट होकर दारुका का वध किया। इस घटना के बाद शिवजी ने उस स्थान पर स्वयंभू लिंग के रूप में प्रकट होने का संकल्प लिया। उसी स्थान को अब नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजा जाता है। धार्मिक महत्व: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से भक्तों को सभी प्रकार के विष, डर, और संकट से मुक्ति मिलती है। यहाँ शिवजी को विशेष रूप से उनके नीलकंठ रूप में पूजा जाता है, जिसने समुद्र मंथन के समय समस्त विष का पान किया था। भक्त मानते हैं कि इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने से जीवन के सभी संकटों का अंत हो जाता है और मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति मिलती है। Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग का स्थान और मंदिर की विशेषताएं: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात के द्वारका के पास स्थित है। यह मंदिर अद्वितीय है क्योंकि इसमें भगवान शिव की एक विशाल प्रतिमा है, जो 80 फीट ऊंची है और मंदिर के मुख्य आकर्षण का केंद्र है। मंदिर की वास्तुकला पारंपरिक और आधुनिक कला का मिश्रण है, और यहाँ पर शिवलिंग की विशेष पूजा होती है। ज्योतिर्लिंग का आकार अन्य ज्योतिर्लिंगों से अलग है, जो इसे अनोखा बनाता है। पौराणिक कथा और मान्यता: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कथा यह है कि एक बार दारुका नामक राक्षस ने अपने दुष्ट कार्यों से पृथ्वी पर आतंक फैला रखा था। वह अपनी पत्नी दारुकी के साथ जंगल में एक शक्तिशाली शक्ति के बल पर अपने अधीन बहुत से निर्दोष लोगों को बंदी बनाता था। इसमें एक सुप्रिया नामक शिव भक्त भी था, जिसने बंदी रहते हुए भी भगवान शिव की आराधना करना बंद नहीं किया। उसकी प्रार्थनाओं को सुनकर भगवान शिव प्रकट हुए और राक्षस दारुका का संहार किया। इस घटना के बाद, शिवजी ने वहां स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर भक्तों की रक्षा करने का आश्वासन दिया। इस ज्योतिर्लिंग को नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना गया, जो बुराई और अधर्म के खिलाफ शिवजी की विजय का प्रतीक है। Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर मंदिर की वास्तुकला और विशेषताएं: धार्मिक अनुष्ठान और पूजन विधि: Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की भौगोलिक स्थिति: मंदिर तक पहुँचने के साधन: महत्त्वपूर्ण त्यौहार: Nageshwar Jyotirling: नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की महत्ता: यह ज्योतिर्लिंग बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इसे संकटों से छुटकारा दिलाने वाला स्थान माना जाता है, और जो व्यक्ति सच्चे हृदय से भगवान शिव की उपासना करता है, उसे यहां आकर मानसिक शांति और सुख की प्राप्ति होती है। इस मंदिर की यात्रा करने वाले भक्तों को जीवन में आने वाली कठिनाइयों से उबरने में सहायता मिलती है और वे शिवजी की कृपा प्राप्त करते हैं। यह भी पढ़ेI शारदीय नवरात्र 2024 : माँ दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए कीजिये शुभ मुहूर्त में घट स्थापना क्या आपने हमारे फेसबुक पेज चेक किया? अभी कीजियेI
सर्व पितृ अमावस्या 2024: महत्त्व, तिथि एवं मुहूर्त
सर्व पितृ अमावस्या 2024 में 2 अक्टूबर को पड़ रही है। यह दिन हिंदू धर्म में अत्यधिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन उन सभी पूर्वजों (पितरों) की आत्माओं को श्रद्धांजलि दी जाती है, जिनका श्राद्ध या तर्पण किसी कारणवश नहीं किया जा सका होता है। इस दिन को पितृ अमावस्या या महालय अमावस्या भी कहा जाता है, और इसे श्राद्ध पक्ष की समाप्ति का प्रतीक माना जाता है। सर्व पितृ अमावस्या का महत्व: सर्व पितृ अमावस्या 2024 का श्राद्ध मुहूर्त पंचांग के अनुसार इस प्रकार है: तिथि और समय: महत्वपूर्ण मुहूर्त: सर्व पितृ अमावस्या के लिए उपयुक्त समय: पितरों के तर्पण और श्राद्ध कर्म का सबसे शुभ समय दिन के 11:47 बजे से लेकर 03:49 बजे तक रहेगा। इस दौरान किए गए कर्म पितरों की शांति के लिए अत्यंत फलदायक माने जाते हैं। इस समय के भीतर पिंडदान, तर्पण, और ब्राह्मणों को भोजन कराने का कार्य करना चाहिए। सर्व पितृ अमावस्या में क्या करना चाहिए: ध्यान रखने योग्य बातें: सर्व पितृ अमावस्या पूर्वजों के प्रति आभार और सम्मान व्यक्त करने का दिन है, और इसे पूरी श्रद्धा और विधि-विधान से मनाने से परिवार को पितरों का आशीर्वाद मिलता है। यह भी पढ़ेंI हमारे फेसबुक पेज से भी जुड़िये I
नारायण नागबली पूजा की संपूर्ण जानकारी
नारायण नागबली पूजा हिंदू धर्म में एक विशेष और पवित्र अनुष्ठान है, जिसे जीवन में आने वाली समस्याओं को दूर करने, पूर्वजों की आत्माओं को शांति प्रदान करने, और नागों को अनजाने में हुई हानि से उत्पन्न दोषों से मुक्ति पाने के लिए किया जाता है। यह वैदिक अनुष्ठान दो भागों में विभाजित होता है: नारायण बलि और नाग बलि। इन दोनों अनुष्ठानों का अपना विशेष महत्व और आध्यात्मिक महत्व है। नारायण बलि का उद्देश्य उस आत्मा को शांति प्रदान करना है, जो आकस्मिक मृत्यु या अधूरी इच्छाओं के कारण भटक रही हो। इसके साथ ही, नाग बलि उन पापों का प्रायश्चित करने के लिए की जाती है जो नागों या सर्पों को नुकसान पहुंचाने से होते हैं। यह पूजा कर्मफल से मुक्ति दिलाती है और जीवन में सुख, समृद्धि और शांति लाती है। नारायण नागबली पूजा का महत्व नारायण नागबली पूजा की प्रक्रिया नारायण बलि अनुष्ठान नारायण बलि का मुख्य उद्देश्य उन आत्माओं को शांति प्रदान करना है, जो किसी कारणवश अपने पारलौकिक यात्रा में अटकी हुई हैं। इस अनुष्ठान में आटे या चावल से एक प्रतीकात्मक मानव आकृति बनाई जाती है, जो उस आत्मा का प्रतीक होती है जिसे मुक्ति दिलानी होती है। नाग बलि अनुष्ठान नाग बलि अनुष्ठान का उद्देश्य नागों या सर्पों को नुकसान पहुंचाने के कारण हुए पापों का प्रायश्चित करना होता है। इस अनुष्ठान में नाग देवता की पूजा की जाती है और उनसे क्षमा याचना की जाती है। पूजा की अवधि नारायण नागबली पूजा सामान्यतः तीन दिनों तक चलती है। प्रत्येक दिन अलग-अलग अनुष्ठान और पूजा विधियां होती हैं। पहले दिन नारायण बलि की जाती है, दूसरे दिन नाग बलि होती है, और तीसरे दिन हवन और अन्य समापन अनुष्ठान होते हैं। त्र्यंबकेश्वर का महत्व त्र्यंबकेश्वर मंदिर, जो महाराष्ट्र में स्थित है, नारायण नागबली पूजा के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। यह मंदिर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और पूर्वजों से संबंधित दोषों के निवारण के लिए विशेष स्थान रखता है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर गोदावरी नदी का उद्गम स्थल भी है, जिससे इस स्थान की धार्मिक महत्ता और भी बढ़ जाती है। हालांकि त्र्यंबकेश्वर को पूजा के लिए प्रमुख स्थल माना जाता है, लेकिन यह पूजा अन्य पवित्र स्थलों पर भी की जा सकती है। नारायण नागबली पूजा के लाभ नारायण नागबली पूजा भक्तों के लिए अनेक लाभ प्रदान करती है, जो इसे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ करते हैं। इस पूजा के प्रमुख लाभों में शामिल हैं: हमारे फेसबुक पेज से जुड़िये II यह भी पढ़िए II
तर्पण विधि और महत्त्व : संपूर्ण जानकारी
तर्पण विधि: तर्पण हिंदू धर्म की एक प्राचीन और पवित्र धार्मिक परंपरा है, जिसमें जल अर्पण कर अपने पितरों, देवताओं और ऋषियों को संतुष्ट किया जाता है। “तर्पण” शब्द संस्कृत के “तृप” धातु से निकला है, जिसका अर्थ होता है ‘संतुष्टि करना’ या ‘प्रसन्न करना’। यह क्रिया मुख्य रूप से पूर्वजों (पितरों) की आत्मा की शांति और उन्हें संतुष्ट करने के लिए की जाती है, ताकि उनकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो और उनकी कृपा व आशीर्वाद हमारे जीवन में बना रहे। तर्पण का विशेष महत्व पितृपक्ष के दौरान होता है, जो श्राद्ध कर्म का एक अभिन्न हिस्सा है। इसके अलावा, तर्पण का आयोजन महत्वपूर्ण पर्वों जैसे अमावस्या, ग्रहण, और संक्रांति के अवसर पर भी किया जाता है। इस प्रक्रिया का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यधिक है, और यह हमारे पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का एक प्रमुख साधन है। तर्पण का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व तर्पण विधि: तर्पण कब और कैसे किया जाता है? तर्पण मुख्य रूप से पितृपक्ष के दौरान किया जाता है, जो भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इसके अलावा, तर्पण निम्नलिखित अवसरों पर भी किया जाता है: तर्पण विधि: तर्पण विधि में श्रद्धा और समर्पण का विशेष महत्व होता है। इस प्रक्रिया में जल अर्पित किया जाता है, जो पितरों की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए होता है। तर्पण करते समय कुछ विशेष सामग्रियों और मंत्रों का प्रयोग किया जाता है। तर्पण के लिए आवश्यक सामग्री: तर्पण की प्रक्रिया: तर्पण करने से पहले स्नान करना और शुद्ध वस्त्र धारण करना अनिवार्य होता है। शुद्धि और पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। तर्पण के नियम: तर्पण में वर्जित कार्य: इसे भी पढ़े I हमारे फेसबुक पेज से जुड़िये II
पितृपक्ष 2024: परंपरा, महत्व, और कर्मकांड की विस्तृत जानकारी
पितृपक्ष, हिंदू धर्म में एक अत्यंत महत्वपूर्ण समय होता है, जिसमें लोग अपने पितरों (पूर्वजों) का स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है। पितृपक्ष का प्रमुख उद्देश्य पितरों की आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ, तर्पण, और दान का आयोजन करना है। यह धार्मिक क्रिया यह विश्वास दिलाती है कि हमारे पूर्वज, जो अब दिवंगत हो चुके हैं, उनकी आत्माओं को शांति प्राप्त होती है और वे हमें अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। यह पर्व 15 दिनों का होता है, जो भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। प्रत्येक दिन को एक विशिष्ट तिथि के रूप में मान्यता दी जाती है, जिसमें पितरों के श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। इस अवधि को बेहद पवित्र और धार्मिक माना जाता है, और इसका पालन करते समय कई नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। पितृपक्ष का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व पितृपक्ष का उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है, और इसका महत्व युगों से चला आ रहा है। मान्यता है कि इस समय यमराज, जो मृत्यु के देवता हैं, मृतात्माओं को पृथ्वी पर आने की अनुमति देते हैं ताकि वे अपने वंशजों द्वारा किए गए तर्पण और श्राद्ध कर्मों को स्वीकार कर सकें। यह अवसर पितरों को संतुष्ट करने और उनकी आत्माओं को शांति प्रदान करने के लिए अनुकूल माना जाता है। भारतीय समाज में पितृपक्ष की गहरी धार्मिक मान्यता है कि यदि इस दौरान श्राद्ध नहीं किया गया, तो पितर असंतुष्ट रहते हैं, और उनकी संताने जीवन में कठिनाइयों का सामना कर सकती हैं। इसके विपरीत, श्राद्ध के दौरान किए गए तर्पण और दान पितरों को प्रसन्न करते हैं, और उनका आशीर्वाद जीवन में सुख, समृद्धि, और शांति लाता है। पितृपक्ष में श्राद्ध कैसे करें? श्राद्ध कर्म की विधि एक महत्वपूर्ण धार्मिक क्रिया है, जिसमें समर्पण और श्रद्धा का विशेष स्थान होता है। श्राद्ध कर्म को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है: 1. तर्पण तर्पण श्राद्ध कर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें जल अर्पित किया जाता है। तर्पण का अर्थ होता है संतोष करना, और यह क्रिया पितरों को संतुष्ट करने के लिए की जाती है। इस क्रिया में जल, तिल, जौ, और कुश का उपयोग किया जाता है। इसे करते समय पितरों के नाम, गोत्र, और तिथि का उच्चारण किया जाता है, और तीन बार जल अर्पित किया जाता है। तर्पण करते समय संकल्प लिया जाता है कि पितरों की आत्मा को शांति और संतोष प्राप्त हो। 2. पिंडदान पिंडदान श्राद्ध का एक और अनिवार्य हिस्सा है। इसमें चावल और तिल से बने पिंड पितरों को अर्पित किए जाते हैं। ये पिंड पितरों की आत्मा को भोजन के रूप में समर्पित होते हैं। ऐसा माना जाता है कि पिंडदान से पितर संतुष्ट होते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है। पिंडदान करते समय श्राद्धकर्ता पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करता है। 3. ब्राह्मण भोज श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना भी अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यह विश्वास किया जाता है कि ब्राह्मण भोजन द्वारा पितर संतुष्ट होते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। भोजन के दौरान सात्विक आहार पर विशेष ध्यान दिया जाता है, जिसमें खीर, पूरी, सब्जी, और अन्य पारंपरिक व्यंजन शामिल होते हैं। मांसाहार और तामसिक पदार्थों से परहेज किया जाता है। ब्राह्मण भोजन के बाद उन्हें दक्षिणा और दान देना भी शुभ माना जाता है। 4. जरूरतमंदों को दान श्राद्ध कर्म के दौरान ब्राह्मणों के साथ-साथ जरूरतमंदों को भी दान देना अत्यंत शुभ माना जाता है। दान में अन्न, वस्त्र, और धन देना चाहिए। यह कर्म न केवल पितरों को संतुष्ट करता है, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी का भी प्रतीक होता है। पितृपक्ष में क्या नहीं करना चाहिए? पितृपक्ष के दौरान कुछ नियमों और वर्जनाओं का पालन करना आवश्यक होता है, ताकि श्राद्ध कर्म प्रभावी और पवित्र रहे। यह समय पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का होता है, इसलिए कुछ कार्यों से बचना चाहिए। 1. शुभ कार्यों का आयोजन पितृपक्ष को अशुभ समय माना जाता है, इसलिए इस दौरान विवाह, गृह प्रवेश, या अन्य शुभ कार्यों का आयोजन नहीं किया जाता। इस समय का उपयोग केवल पितरों की स्मृति और उनकी आत्मा की शांति के लिए किया जाता है। 2. मांस और मदिरा का सेवन पितृपक्ष के दौरान मांस और मदिरा का सेवन वर्जित होता है। इस समय सात्विक आहार का पालन करना चाहिए, जिसमें प्याज, लहसुन, और तामसिक खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं किया जाता है। भोजन शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। 3. नए वस्त्र या सामान की खरीदारी पितृपक्ष के दौरान नए वस्त्र, आभूषण, या अन्य सामान खरीदने से बचा जाता है। यह समय पितरों के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने का होता है, इसलिए भौतिक सुख-सुविधाओं पर जोर नहीं दिया जाता। 4. शारीरिक संबंध पितृपक्ष के दौरान संयम और आत्मनियंत्रण का पालन किया जाता है। शारीरिक संबंधों से दूर रहना चाहिए और मानसिक और शारीरिक शुद्धि बनाए रखनी चाहिए। 5. बाल कटवाना और नाखून काटना पितृपक्ष के दौरान बाल कटवाना या नाखून काटने से परहेज किया जाता है। यह कार्य अशुभ माने जाते हैं और पितरों के प्रति अनादर का प्रतीक होते हैं। 6. उत्सव और आनंद पितृपक्ष के दौरान किसी भी प्रकार के आनंद और उत्सव से बचना चाहिए। संगीत, नृत्य, और अन्य मनोरंजन के कार्य इस समय उचित नहीं माने जाते। पितृपक्ष में पालन किए जाने वाले अन्य नियम पितृपक्ष में कुछ अन्य सामान्य नियमों का पालन भी आवश्यक होता है। जैसे: श्राद्ध तिथियों का महत्व पितृपक्ष के प्रत्येक दिन को विशेष तिथि के रूप में जाना जाता है, और यह तिथि पितरों की मृत्यु की तिथि पर आधारित होती है। श्राद्ध तिथियों के आधार पर निम्नलिखित श्राद्ध होते हैं: पितृपक्ष का समापन और फल पितृपक्ष के अंत में सर्वपितृ अमावस्या का दिन आता है, जो पितरों का विदाई दिवस माना जाता है। इस दिन विशेष पूजा और दान का आयोजन किया जाता है। श्राद्ध कर्म के समापन पर ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को प्रसन्नता के साथ विदा किया जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि पितृपक्ष के दौरान किए गए श्राद्ध कर्म से पितर संतुष्ट होते हैं, और उनका आशीर्वाद आने वाली पीढ़ियों को सुख-समृद्धि और शांति
धन और समृद्धि पाने के लिए करें श्री सूक्त का नियमित पाठ
धन और समृद्धि प्राप्त करने के लिए श्री सूक्त का पाठ नियमित रूप से करना चाहिए, श्री सूक्त की रचना प्राचीन वैदिक काल में हुई है, और यह ऋग्वेद का एक महत्वपूर्ण भाग है। इसकी रचना किसी एक व्यक्ति या ऋषि द्वारा नहीं की गई थी, बल्कि यह वेदों के अन्य मंत्रों की तरह ही ऋषियों द्वारा दिव्य प्रेरणा से श्रवण के माध्यम से प्राप्त हुआ। इसलिए इसे अपौरुषेय (जिसका कोई मानव रचनाकार नहीं) माना जाता है। यह देवताओं से सीधे प्राप्त होने वाले मंत्रों का संकलन है, जिसे ऋषियों ने सुना और फिर उसे लिपिबद्ध किया। श्री सूक्त की रचना का प्रमुख उद्देश्य देवी लक्ष्मी की स्तुति और उनके आह्वान के माध्यम से धन और समृद्धि, ऐश्वर्य और सुख की प्राप्ति करना था। यह स्तोत्र उन मंत्रों का समूह है, जो लक्ष्मी देवी की कृपा पाने के लिए गाए जाते हैं, क्योंकि लक्ष्मी देवी को ऐश्वर्य, सौभाग्य, धन और समृद्धि की देवी माना जाता है। श्री सूक्त की रचना के कारण: श्री सूक्त वेदों में वर्णित एक अत्यंत प्रभावशाली और पवित्र स्तोत्र है, जो लक्ष्मी देवी की स्तुति और पूजा के लिए समर्पित है। यह ऋग्वेद के खंड से लिया गया है और इसमें देवी लक्ष्मी की महिमा का वर्णन किया गया है। श्री सूक्त के पाठ से धन और समृद्धि, सुख-शांति, वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। श्री सूक्त के पाठ का लाभ: श्री सूक्त के पाठ की विधि: श्री सूक्त का पाठ किसी भी समय किया जा सकता है, लेकिन इसे सुबह और संध्या समय में करना सबसे शुभ माना गया है। श्री सूक्त के पाठ के लिए निम्नलिखित विधि का पालन किया जा सकता है: 1. स्नान और स्वच्छता: 2. आसन और आस-पास की व्यवस्था: 3. श्री सूक्त का पाठ: 4. मंत्र जाप: 5. नैवेद्य और आरती: 6. समापन: 7. विशेष समय: श्री सूक्त एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जो देवी लक्ष्मी की स्तुति में रचा गया है। यह मुख्यतः वैदिक संस्कृत में है और इसमें 15 ऋचाएं (श्लोक या मंत्र) होती हैं। ये मंत्र देवी लक्ष्मी की महिमा और उनके आह्वान से संबंधित हैं। नीचे सम्पूर्ण श्री सूक्त का पाठ संस्कृत में दिया गया है: श्री सूक्त (संस्कृत में): श्री सूक्त का समापन मंत्र: ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।। हम महादेवी का ध्यान करते हैं, जो भगवान विष्णु की पत्नी हैं। देवी लक्ष्मी हमें प्रेरणा और समृद्धि प्रदान करें। श्री सूक्त के पाठ से जीवन में आर्थिक, मानसिक और आत्मिक समृद्धि की प्राप्ति होती है। व्रत एवं त्यौहार || यह भी सुनिए
रिश्तों के बारे में श्री कृष्ण ने क्या कहा ?
रिश्तों को सुधारने के लिए, श्री कृष्ण के अनुसार क्या करना चाहिए, इस विषय को गहरे आध्यात्मिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है । श्री कृष्ण की शिक्षाएँ, विशेष रूप से भगवद गीता में, जीवन के हर पहलू के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं, जिनमें रिश्तों की जटिलताएँ भी शामिल हैं। उन्होंने कर्म, भक्ति, और ज्ञान के माध्यम से जीवन की समस्याओं का समाधान करने के सिद्धांत बताए हैं। जब रिश्तों में दरार आती है, तो श्री कृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि हमें संयम, धैर्य, प्रेम, और करुणा से काम लेना चाहिए। आइए इन सिद्धांतों को विस्तार से समझते हैं: 1. आत्म-निरीक्षण और आत्म-जागरूकता (Self-Reflection and Self-Awareness) रिश्तों में किसी भी प्रकार की समस्या होने पर श्री कृष्ण का पहला सुझाव है कि हम आत्म-निरीक्षण करें। श्री कृष्ण कहते हैं कि, हर व्यक्ति को अपने भीतर की सच्चाई को समझना चाहिए। जब रिश्तों में दरार आती है, तो हमें पहले यह देखना चाहिए कि क्या हमसे कोई गलती हुई है। आत्म-निरीक्षण का अर्थ है अपने कर्म, विचार, और व्यवहार का विश्लेषण करना। कई बार हम दूसरों को दोष देते हैं, जबकि समस्या हमारे भीतर भी हो सकती है। श्री कृष्ण ने सिखाया है कि जीवन में हर क्रिया का एक परिणाम होता है। इसलिए, रिश्तों में भी हमारे कर्मों का प्रभाव पड़ता है। हमें यह देखना चाहिए कि कहीं हमारे शब्द या कार्य तो उस दरार का कारण नहीं बने। आत्म-निरीक्षण हमें यह समझने में मदद करता है कि हम अपने व्यवहार में क्या सुधार कर सकते हैं ताकि रिश्ते को ठीक किया जा सके। 2. संवाद और समझदारी (Communication and Understanding) श्री कृष्ण कहते हैं कि, संवाद और समझदारी रिश्तों को मजबूत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गीता में उन्होंने कहा है कि किसी भी समस्या का समाधान संवाद के माध्यम से निकल सकता है। रिश्तों में दरार आने पर हमें खुलकर और ईमानदारी से संवाद करना चाहिए। बहुत बार लोग अपनी भावनाओं को छिपाते हैं या किसी बात को सही ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते, जिससे गलतफहमियाँ पैदा होती हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि, हमें अपनी भावनाओं और विचारों को स्पष्ट रूप से और शांतिपूर्वक व्यक्त करना चाहिए। साथ ही, हमें यह भी सुनने की क्षमता होनी चाहिए कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है। समझदारी से बातचीत करने से हम एक-दूसरे की स्थिति और भावनाओं को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं, जिससे समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। 3. क्षमा और करुणा (Forgiveness and Compassion) क्षमा करना एक ऐसा गुण है जिसे श्री कृष्ण ने अत्यधिक महत्व दिया है। श्री कृष्ण कहते हैं कि क्रोध और अहंकार को छोड़कर हमें क्षमाशीलता और करुणा का भाव अपनाना चाहिए। रिश्तों में कई बार ऐसी स्थितियाँ आती हैं जहाँ लोग एक-दूसरे से नाराज होते हैं या उनके बीच गलतफहमियाँ हो जाती हैं। ऐसे समय में, श्री कृष्ण सिखाते हैं कि हमें एक-दूसरे को माफ करने का गुण अपनाना चाहिए। गीता में, श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि हर व्यक्ति से कभी न कभी गलती होती है, लेकिन महान वही है जो इन गलतियों को माफ कर सके। क्षमा करने से न केवल दूसरों के प्रति हमारी करुणा बढ़ती है, बल्कि यह हमारे अंदर के गुस्से और नकारात्मकता को भी दूर करती है। करुणा का अर्थ है दूसरों की भावनाओं को समझना और उन्हें स्वीकार करना। करुणा से भरे हुए व्यक्ति से कभी भी रिश्तों में तनाव नहीं आता, क्योंकि वह हर परिस्थिति में शांति और समझदारी से काम लेता है। इससे रिश्ते में मधुरता आती है 4. अहंकार का त्याग (Letting Go of Ego) अहंकार अक्सर रिश्तों में दरार का कारण बनता है। श्री कृष्ण ने गीता में अहंकार को सबसे बड़ा शत्रु बताया है। जब हम अपने अहंकार को अपने ऊपर हावी होने देते हैं, तो यह हमें दूसरों की भावनाओं को समझने से रोकता है। रिश्तों में दरार आने का एक मुख्य कारण अहंकार होता है। जब दोनों पक्ष अपने अहंकार के चलते एक-दूसरे से बात करना या माफी मांगना नहीं चाहते, तो समस्या और बड़ी हो जाती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें अपने अहंकार को त्यागकर विनम्रता का गुण अपनाना चाहिए। विनम्रता और समर्पण से हम एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और रिश्तों में आई दरार को दूर कर सकते हैं। 5. धैर्य और संतुलन (Patience and Balance) श्री कृष्ण की एक अन्य महत्वपूर्ण शिक्षा है धैर्य रखना। गीता में उन्होंने बार-बार धैर्य और संयम का महत्व बताया है। रिश्तों में अक्सर त्वरित निर्णय लेने या जल्दबाजी में प्रतिक्रिया देने से समस्या और बढ़ जाती है। हमें धैर्यपूर्वक समस्याओं का सामना करना चाहिए और सही समय पर उचित निर्णय लेना चाहिए। धैर्य के साथ-साथ संतुलन भी महत्वपूर्ण है। श्री कृष्ण कहते हैं कि जीवन के हर पहलू में संतुलन होना चाहिए, चाहे वह काम हो, रिश्ते हों, या व्यक्तिगत भावनाएँ। जब हम संतुलन में रहते हैं, तो हम किसी भी समस्या का सामना शांतिपूर्ण और विवेकपूर्ण तरीके से कर सकते हैं। रिश्तों में भी संतुलन बनाए रखना आवश्यक है, ताकि एक-दूसरे की भावनाओं और जरूरतों को समझा जा सके। 6. प्यार और सम्मान (Love and Respect) श्री कृष्ण कहते हैं कि हर रिश्ते की नींव प्यार और सम्मान पर आधारित होती है। अगर हम एक-दूसरे के प्रति सच्चा प्यार और सम्मान महसूस करते हैं, तो किसी भी प्रकार की दरार को ठीक किया जा सकता है। प्यार का अर्थ केवल शारीरिक आकर्षण या भावनात्मक जुड़ाव से नहीं है, बल्कि इसका मतलब है एक-दूसरे के प्रति निःस्वार्थ भावना रखना। श्री कृष्ण ने सिखाया है कि जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं, तो उसमें स्वार्थ नहीं होना चाहिए। हमें उनकी खुशी और भलाई के लिए काम करना चाहिए। इसके अलावा, सम्मान का भी बड़ा महत्व है। जब हम किसी के विचारों, भावनाओं, और व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं, तो वह व्यक्ति हमारे प्रति और अधिक सकारात्मक भावना रखता है। सम्मान से रिश्ते में विश्वास बढ़ता है, जो किसी भी दरार को ठीक करने में मदद करता है। 7. कर्तव्यों का पालन (Fulfilling Duties) श्री कृष्ण ने गीता में कर्म योग की बात की है, जिसमें उन्होंने कर्तव्यों को निभाने के महत्व
नवरात्रि में कैसे करें माँ दुर्गा को प्रसन्न ?
सनातन धर्म में नवरात्रि एक प्रमुख पर्व है जो माता दुर्गा की पूजा और महायज्ञ के माध्यम से मनाया जाता है। यह पर्व भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व रखता है नवरात्रि का पर्व सनातन धर्म में माँ दुर्गा की पूजा के रूप में माना जाता है और इसे भारत भर में उत्साह से मनाया जाता है। यह पर्व आमतौर पर चैत्र नवरात्रि और शरद नवरात्रि में मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान, लोग नौ दिनों तक निराहार व्रत रखते हैं और देवी दुर्गा की पूजा करते हैं। प्रतिदिन अलग-अलग रूपों में देवी की पूजा की जाती है, जैसे कि शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ रूप माता दुर्गा के नौ अवतारों को प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी शक्ति और सामर्थ्य की पूजा की जाती है। नवरात्रि का महत्व यह है कि इसके माध्यम से हम मां दुर्गा की भक्ति करते हैं और उनकी कृपा और आशीर्वाद को प्राप्त करते हैं। इस पर्व के माध्यम से हम सात्त्विकता, शक्ति, और निर्मलता की प्राप्ति का प्रयास करते हैं, जो हमें धार्मिक और आध्यात्मिक उत्थान में सहायता करता है। इस दौरान, लोग मंदिरों में जाकर देवी की मूर्ति की पूजा करते हैं, भजन की गायन करते हैं और महिलाएं विशेष रूप से नवरात्रि के नौ दिनों के उपासना करती हैं। यह पर्व धार्मिक और सामाजिक आयोजनों का भी अवसर होता है, लोग बड़े- बड़े पंडालों और मंदिरों में भी भव्य प्रवचन, कथाएँ और संगीत समारोह का आयोजन करते हैं जिससे लोगों को एक-दूसरे के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। सामाजिक रूप से, नवरात्रि का उत्सव लोगों को एक साथ जोड़ता है और सामूहिक रूप से उत्साह, सामाजिक सद्भाव, और धार्मिक भावना को बढ़ाता है। नवरात्रि के अंत में, दशमी के दिन या दुर्गा दशमी के रूप में, लोग माँ दुर्गा के प्रति अपना आभार और भक्ति प्रकट करते हैं। इस दिन भजन की ध्वनि, आरती की धुन और मंदिरों में ध्वजारोहण की ध्वनि सुनाई जाती है। इस प्रकार, नवरात्रि का पर्व माँ दुर्गा की पूजा और भक्ति का एक महान उत्सव है जो धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नवरात्रि में जौ बोने का विधान है, जौ बोने के लिए ऐसा पात्र लें जिसमें मिट्टीभरने के बाद कलश रखने के लिए जगह बच जाए, एक साफ स्थान पर एक पाटी या चौकी लगाकर उस पर लाल कपडा बिछाकर इस पात्र को रख देना चाहिए, अब एक मिट्टी का कलश लेकर उसे अच्छे से साफ़ करके, जिस पात्र में जौ बोये गए हैं उसके ऊपर रख दें और कलश को शुद्ध जल से भर दें और थोडा गंगाजल भी मिला दें, कलश के गले में मौली बांधकर रोली से स्वस्तिक बना दें। कलश के अंदर फूल, इत्र, साबुत सुपारी, दूर्वा डाल दें। पाँच आम या अशोक के पत्ते लेकर कलश में डालकर कलश को किसी पात्र से ढक दें और इस पात्र में अक्षत भरकर इसके ऊपर एक नारियल लाल कपडे में लपेटकर रख दें। ध्यान रहे नारियल का मुख आपकी तरफ होना चाहिए। अब माँ दुर्गा की प्रतिमा या फोटो को चौकी पर स्थापित करें, माँ का आह्वान करें, दीप, धूप, फल- फूल, नैवेद्य समर्पित करें, माँ से अपने सभी कष्ट हरने और सभी मनोकामनाएं पूरी करने का निवेदन करें, इसके पश्चात आरती करें और प्रसाद वितरित करें। इन नौ दिनों में दुर्गा चालीसा का पाठ करने से मानसिक शांति मिलती है। इसलिए माँ दुर्गा चालीसा का पाठ अवश्य ही करना चाहिए। हमारे फेसबुक पेज से भी जुड़िये
Shri Durga Chalisa Path: श्री दुर्गा चालीसा पाठ से माँ दुर्गा होंगी प्रसन्न
माँ दुर्गा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन कीजिये श्री दुर्गा चालीसा पाठ Durga Chalisa : श्री दुर्गा चालीसा पाठ – श्री दुर्गा चालीसा के नित्य पाठ से माँ दुर्गा आपके सभी कष्टों का निवारण कर आप पर विशेष कृपा करेंगी || श्री दुर्गा चालीसा || नमो नमो दुर्गे सुख करनी।नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी।तिहूं लोक फैली उजियारी॥ शशि ललाट मुख महाविशाला।नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ रूप मातु को अधिक सुहावे।दरश करत जन अति सुख पावे॥ तुम संसार शक्ति लै कीना।पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला।तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ प्रलयकाल सब नाशन हारी।तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ रूप सरस्वती को तुम धारा।दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥ धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।परगट भई फाड़कर खम्बा॥ रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।श्री नारायण अंग समाहीं॥ क्षीरसिन्धु में करत विलासा।दयासिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।महिमा अमित न जात बखानी॥ मातंगी अरु धूमावति माता।भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी।छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ केहरि वाहन सोह भवानी।लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर खड्ग विराजै।जाको देख काल डर भाजै॥ सोहै अस्त्र और त्रिशूला।जाते उठत शत्रु हिय शूला॥ नगरकोट में तुम्हीं विराजत।तिहुँलोक में डंका बाजत॥ शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे।रक्तन बीज शंखन संहारे॥ महिषासुर नृप अति अभिमानी।जेहि अघ भार मही अकुलानी॥ रूप कराल कालिका धारा।सेन सहित तुम तिहि संहारा॥ परी गाढ़ सन्तन पर जब जब।भई सहाय मातु तुम तब तब॥ आभा पुरी अरु बासव लोका।तब महिमा सब रहें अशोका॥ ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥ प्रेम भक्ति से जो यश गावें।दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥ जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥ शंकर आचारज तप कीनो।काम क्रोध जीति सब लीनो॥ निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥ शक्ति रूप का मरम न पायो।शक्ति गई तब मन पछितायो॥ शरणागत हुई कीर्ति बखानी।जय जय जय जगदम्ब भवानी॥ भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥ मोको मातु कष्ट अति घेरो।तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥ आशा तृष्णा निपट सतावें।रिपु मुरख मोही डरपावे॥ शत्रु नाश कीजै महारानी।सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥ करो कृपा हे मातु दयाला।ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।। जब लगि जियऊं दया फल पाऊं।तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥ श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।सब सुख भोग परमपद पावै॥ देवीदास शरण निज जानी।करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥ ॥इति श्रीदुर्गा चालीसा सम्पूर्ण॥ माँ दुर्गा सभी भक्तों पर कृपा करती हैं, जो मनुष्य माँ दुर्गा का नाम नियमित रूप से लेता है उसके सभी दुखों का नाश करती हैं| प्रातः जल्दी उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर माँ दुर्गा की प्रतिमा या फोटो के सामने देशी घी का दीपक जलाकर, लाल रंग के फूल माँ को समर्पित करके 11 बार श्री दुर्गा चालीसा पाठ नियमित करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं और मनोवांछित फल प्रदान करती हैं| माँ दुर्गा की आरधना सच्चे मन और पूरी श्रद्धा के साथ करनी चाहिए, पवित्रता का व्रत धारण करना चाहिए, इस चालीसा में सभी दुखों का नाश करने की शक्ति है माँ दुर्गा चालीसा का पाठ करने मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है| श्री दुर्गा चालीसा पाठ ध्यान, श्रद्धा, और भक्ति के साथ करें तथा माँ दुर्गा की कृपा और आशीर्वाद को प्राप्त करें। नवरात्रि के पावन पर्व में माँ दुर्गा चालीसा का नियमित पाठ करें और माँ की कृपा प्राप्त करें।
माँ दुर्गा के 108 नामों के जाप से मिलेगी समस्त दुखों से मुक्ति
माँ दुर्गा के 108 नाम माँ दुर्गा के 108 नाम इस प्रकार हैं:- माँ दुर्गा समस्त कष्टों को हरने वाली हैं, अपने भक्तों पर कृपा करने वाली हैंI जो मनुष्य सच्चे मन से माँ दुर्गा के इन नामों का जाप करता है और हमेशा माँ दुर्गा का भजन पूजन करता है सभी विपत्तियों से मुक्त होकर सुखी जीवन व्यतीत करता हैI यह भी जानिए:-