Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी व्रत का महत्त्व Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण व्रतों में से एक है। इसे ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। इस व्रत का मुख्य पहलू है कि इसमें जल का भी सेवन नहीं किया जाता, इसलिए इसे ‘निर्जला’ कहा जाता है। इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है, क्योंकि महाभारत के पात्र भीमसेन ने इस व्रत को सबसे पहले रखा था। इस व्रत का धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व अत्यधिक है। आइए, इस व्रत के महत्व को विस्तार से समझते हैं। धार्मिक महत्व Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी को सभी एकादशियों में सबसे श्रेष्ठ माना गया है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से पूरे वर्ष की सभी एकादशियों का फल प्राप्त होता है। शास्त्रों के अनुसार, एकादशी के दिन उपवास करने से व्यक्ति के पापों का नाश होता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस व्रत का महत्व महाभारत में भी वर्णित है, जहां भगवान श्रीकृष्ण ने भीमसेन को इस व्रत का पालन करने की सलाह दी थी ताकि वह सभी एकादशियों का फल प्राप्त कर सकें। आध्यात्मिक महत्व निर्जला एकादशी व्रत आध्यात्मिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उपवास करने से व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करता है और आत्म-संयम को बढ़ावा देता है। यह व्रत मानसिक और आत्मिक शांति प्रदान करता है और व्यक्ति को अपने आत्मा के निकट लाता है। व्रती भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और कथा का श्रवण करते हैं, जिससे उनकी आध्यात्मिक उन्नति होती है। स्वास्थ्य और योगिक महत्व योग और आयुर्वेद के दृष्टिकोण से, निर्जला एकादशी व्रत का पालन करने से शरीर के विषाक्त तत्व बाहर निकल जाते हैं और पाचन तंत्र को विश्राम मिलता है। यह व्रत शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी माना जाता है। उपवास के दौरान शरीर की सभी प्रणालियाँ स्वाभाविक रूप से पुनः सक्रिय हो जाती हैं और शरीर को नई ऊर्जा प्राप्त होती है। सामाजिक महत्व Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी व्रत का पालन सामूहिक रूप से किया जाता है, जिससे समाज में एकता और सामंजस्य का भाव उत्पन्न होता है। इस व्रत के दिन लोग एकत्रित होकर भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और उनकी महिमा का गुणगान करते हैं। सामूहिक पूजा और सत्संग से समाज में धार्मिकता और सद्भाव का संचार होता है। इससे सामाजिक बंधन मजबूत होते हैं और सामुदायिक सहयोग को प्रोत्साहन मिलता है। Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी व्रत की विधि निर्जला एकादशी व्रत की विधि विशेष होती है। इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को प्रातः काल स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए। पूजा स्थल को स्वच्छ करके भगवान विष्णु की प्रतिमा या चित्र स्थापित करना चाहिए। निम्नलिखित सामग्री का उपयोग पूजा के लिए किया जाता है: व्रती व्यक्ति दिन भर निराहार और निर्जल रहता है और भगवान विष्णु की आराधना करता है। इस दिन भगवद्गीता, विष्णु सहस्रनाम और अन्य धार्मिक ग्रंथों का पाठ करना भी शुभ माना जाता है। रात्रि को जागरण करते हुए भजन-कीर्तन का आयोजन किया जाता है। Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी व्रत की पौराणिक कथा निर्जला एकादशी व्रत हिंदू धर्म के प्रमुख व्रतों में से एक है। इसे ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। इस व्रत का नाम निर्जला इसीलिए पड़ा क्योंकि इसमें जल का भी सेवन वर्जित होता है। इस व्रत को रखने से पूरे वर्ष की सभी एकादशियों का फल प्राप्त होता है। इस व्रत का पालन करने का श्रेय महाभारत के पात्र भीम को दिया जाता है, इसलिए इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है। भीम और एकादशी व्रत महाभारत के पांच पांडवों में से एक भीमसेन थे, जिन्हें भोजन से अत्यधिक प्रेम था। वे बलशाली और पराक्रमी थे, लेकिन उपवास उनके लिए अत्यंत कठिन था। उनके भाई युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल, और सहदेव एकादशी व्रत का पालन करते थे और भगवान विष्णु की आराधना करते थे। भीम भी यह व्रत करना चाहते थे, परंतु उन्हें बिना भोजन के रहना बहुत कठिन लगता था। भीम की चिंता एक बार भीम ने अपनी माता कुंती और भाइयों से कहा, “माँ, भाइयों, मुझे एकादशी का व्रत करना बहुत कठिन लगता है क्योंकि मैं बिना भोजन के नहीं रह सकता। क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे मैं भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त कर सकूं बिना उपवास किए?” भीम की चिंता सुनकर सभी ने उन्हें भगवान श्रीकृष्ण से परामर्श लेने का सुझाव दिया। श्रीकृष्ण से परामर्श भीम भगवान श्रीकृष्ण के पास गए और अपनी समस्या बताई। श्रीकृष्ण ने उनकी चिंता को समझते हुए कहा, “हे भीम, यदि तुम पूरे वर्ष की एकादशियों का फल एक ही व्रत से प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें निर्जला एकादशी का व्रत करना होगा। यह व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को होता है। इस दिन तुम्हें निराहार और निर्जल रहना होगा और भगवान विष्णु की आराधना करनी होगी। इस व्रत के पालन से तुम्हें पूरे वर्ष की सभी एकादशियों का फल प्राप्त होगा।” Nirjala Ekadashi 2024: निर्जला एकादशी व्रत की विधि भीम ने भगवान श्रीकृष्ण की बात मानकर निर्जला एकादशी का व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने इस व्रत की विधि का पालन किया, जो इस प्रकार है: व्रत का फल भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से भीम ने निर्जला एकादशी व्रत का पालन सफलतापूर्वक किया। इस व्रत के पालन से भीम को पूरे वर्ष की सभी एकादशियों का फल प्राप्त हुआ और उनके समस्त पापों का नाश हुआ। इस प्रकार, भीम ने भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त की और धार्मिकता के मार्ग पर अग्रसर हुए। व्रत के लाभ उपसंहार निर्जला एकादशी व्रत हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है। यह व्रत न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि आध्यात्मिक, स्वास्थ्य और सामाजिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत लाभकारी है। इस व्रत का पालन व्यक्ति को आत्म-संयम, धैर्य और समर्पण की सीख देता है। भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने और मोक्ष की ओर अग्रसर होने के लिए यह व्रत अत्यंत प्रभावी माना गया है। निर्जला एकादशी का व्रत कठिन अवश्य है, परन्तु इसके फल और लाभ असीमित हैं। इस व्रत के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपने पापों का नाश कर सकता है, बल्कि अपने जीवन में धार्मिकता और आध्यात्मिकता का भी
वट सावित्री (Savitri) व्रत का महत्त्व
वट सावित्री(Savitri) व्रत की पौराणिक कथा वट सावित्री( Savitri) व्रत हिंदू धर्म में मनाए जाने वाले प्रमुख व्रतों में से एक है, जिसे महिलाएँ अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए रखती हैं। यह व्रत विशेष रूप से उत्तर भारत, बिहार, उत्तर प्रदेश, और महाराष्ट्र में मनाया जाता है। इस व्रत की मूल कथा सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा पर आधारित है। सावित्री और सत्यवान की कथा सावित्री एक महान राजा अश्वपति की पुत्री थीं, जो अपनी तपस्या और देवी सवित्री की कृपा से प्राप्त हुई थीं। सावित्री बचपन से ही अत्यंत सुंदर और बुद्धिमान थीं। जब वह विवाह योग्य हो गईं, तो उनके पिता ने उनसे अपने लिए वर खोजने को कहा। सावित्री ने एक तपस्वी के पुत्र सत्यवान को अपने पति के रूप में चुना, जो अपने माता-पिता के साथ वन में रहते थे। सत्यवान अत्यंत धर्मात्मा, निडर और सदाचारी व्यक्ति थे। जब नारद मुनि ने सत्यवान के बारे में सुना, तो उन्होंने बताया कि सत्यवान का जीवनकाल केवल एक वर्ष का है। यह सुनकर भी सावित्री अपने निश्चय पर अडिग रहीं और सत्यवान से विवाह किया। विवाह के बाद सावित्री (Savitri)अपने पति के साथ वन में रहने लगीं और अपने ससुराल के सभी कर्तव्यों को पूर्ण निष्ठा से निभाया। विवाह के एक वर्ष पूरे होने पर, सत्यवान लकड़ी काटने के लिए वन में गए। सावित्री ने अपने पति की मृत्यु के संकेतों को समझते हुए उनके साथ जाने का निर्णय लिया। वन में सत्यवान पेड़ काटते समय बेहोश होकर गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गई। यमराज से संवाद सत्यवान की आत्मा को लेकर यमराज आए। सावित्री (Savitri) ने यमराज का पीछा करते हुए उनसे अपने पति की आत्मा को लौटाने की प्रार्थना की। यमराज ने सावित्री के धैर्य और समर्पण को देखकर तीन वरदान देने का वचन दिया। सावित्री ने पहले वरदान में अपने ससुराल को पुनः राज्य प्राप्ति, दूसरे में अपने पिता को सौ पुत्र, और तीसरे वरदान में सत्यवान के साथ सौ पुत्र होने की इच्छा प्रकट की। यमराज ने इन वरदानों को स्वीकार कर लिया और सावित्री की भक्ति से प्रभावित होकर सत्यवान को जीवनदान दिया। इस प्रकार, सावित्री ने अपनी बुद्धिमत्ता और भक्ति से अपने पति के जीवन को पुनः प्राप्त किया। वट सावित्री व्रत का महत्त्व धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व वट सावित्री व्रत भारतीय समाज में पत्नी की निष्ठा, समर्पण और पति के प्रति प्रेम का प्रतीक है। यह व्रत हिन्दू धर्म की महान परंपरा को जीवित रखता है और महिलाओं को उनके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक बनाता है। सावित्री और सत्यवान की कथा यह सिखाती है कि धैर्य, भक्ति और समर्पण से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है। व्रत की विधि वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन, व्रती महिलाएँ प्रातः काल स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं और व्रत का संकल्प लेती हैं। वे वट वृक्ष (बड़ के पेड़) के पास जाकर उसकी पूजा करती हैं। वृक्ष को कच्चे धागे से लपेटती हैं और पानी, चावल, पुष्प और मिठाई अर्पित करती हैं। पूजा के बाद वे सावित्री और सत्यवान की कथा का श्रवण करती हैं। पूजन सामग्री व्रत का पालन व्रती महिलाएँ दिनभर उपवास करती हैं और व्रत का पालन करती हैं। इस दौरान वे सत्यवान और सावित्री की कथा का पाठ करती हैं और उनकी स्तुति करती हैं। इस व्रत में धैर्य और संयम का विशेष महत्त्व होता है। व्रत के लाभ इस व्रत को करने से महिलाओं को अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। इसके अलावा, यह व्रत महिलाओं को धैर्य, समर्पण और शक्ति की महत्ता सिखाता है। सावित्री की तरह, महिलाएँ भी अपने परिवार की खुशहाली और समृद्धि के लिए कठिनाइयों का सामना करने में सक्षम बनती हैं। उपसंहार वट सावित्री व्रत भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह व्रत न केवल पति-पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनाता है, बल्कि महिलाओं को उनके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति भी जागरूक करता है। सावित्री और सत्यवान की कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति, धैर्य और समर्पण से किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है। इस व्रत के माध्यम से महिलाएँ अपने परिवार की सुख-समृद्धि और खुशहाली के लिए प्रार्थना करती हैं और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं। यह भी पढ़ेंI Facebook पर भी follow करेंI
Garud: पक्षीराज गरुड़ की जन्मकथा
गरुड़ (Garud)की जन्म कथा भारतीय धार्मिक ग्रंथों में विशेष स्थान रखती है। गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन और उनके प्रमुख भक्त माने जाते हैं। उनके जन्म और कार्यों की कथा हमें अनेक पुराणों में मिलती है। यह कथा साहस, भक्ति, और कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक है। यहाँ गरुड़ के जन्म की कथा विस्तार से प्रस्तुत है: कश्यप ऋषि और उनकी पत्नियाँ कश्यप ऋषि की दो प्रमुख पत्नियाँ थीं, विनता और कद्रू। कद्रू ने सौ नागों को जन्म दिया जबकि विनता ने दो अंडे दिए। कद्रू की संतानें जल्दी पैदा हो गईं, लेकिन विनता के अंडों से संतानें जन्म लेने में समय लग रहा था। विनता धैर्य नहीं रख सकीं और उन्होंने एक अंडे को समय से पहले ही फोड़ दिया। उस अंडे से अरुण का जन्म हुआ, जो अर्धविकसित थे। अरुण ने अपनी माँ को यह कहते हुए शाप दिया कि वह अपने दूसरे अंडे से संतान के पूर्ण विकास तक दासी बनी रहेंगी। शर्त और दासता एक बार कद्रू और विनता में उच्चैःश्रवा नामक घोड़े के रंग को लेकर विवाद हुआ। कद्रू ने कहा कि घोड़े की पूंछ काली है, जबकि विनता ने कहा कि वह सफेद है। दोनों ने शर्त लगाई कि हारने वाली बहन विजेता की दासी बन जाएगी। कद्रू ने अपने नाग पुत्रों को उच्चैःश्रवा की पूंछ पर लपेटने का आदेश दिया, जिससे वह काला दिखाई देने लगा। विनता शर्त हार गईं और कद्रू की दासी बन गईं। गरुड़ (Garud) का जन्म समय बीतने के साथ, विनता के दूसरे अंडे से गरुड़ ( का जन्म हुआ। गरुड़ का जन्म अत्यंत तेजस्वी और शक्तिशाली रूप में हुआ। उनका तेज इतना प्रबल था कि तीनों लोक उनकी चमक से आलोकित हो उठे। उनकी शक्ति और पराक्रम को देखकर देवताओं ने उनकी स्तुति की। माँ की मुक्ति के लिए यात्रा गरुड़ ने जब अपनी माँ को कद्रू की दासी के रूप में देखा, तो उन्होंने अपनी माँ को मुक्त कराने का निश्चय किया। नागों ने कहा कि यदि गरुड़ स्वर्ग से अमृत लाकर उन्हें दें, तो वे विनता को मुक्त कर देंगे। अपनी माँ की मुक्ति के लिए गरुड़ ने इस कठिन कार्य को करने का निर्णय लिया और अमृत की खोज में निकल पड़े। अमृत की प्राप्ति गरुड़ (Garud) ने स्वर्ग में जाकर अमृत को प्राप्त किया। उन्होंने इन्द्र और अन्य देवताओं से युद्ध किया और अपनी अद्वितीय शक्ति से सभी को पराजित किया। उनकी शक्ति को देखकर भगवान विष्णु ने उन्हें अपना वाहन बनने का प्रस्ताव दिया। गरुड़ ने यह स्वीकार कर लिया, परन्तु उन्होंने नागों को दिया वचन भी निभाया। उन्होंने अमृत को नागों के पास ले जाकर उन्हें दे दिया, लेकिन नागों को चेताया कि वे अमृत का सेवन न करें, केवल उसकी पूजा करें। नागों ने गरुड़ की बात मानी। विनता की मुक्ति गरुड़ ने अमृत देकर अपनी माँ विनता को दासता से मुक्त किया। इस प्रकार उन्होंने अपने कर्तव्य को निभाया और अपनी शक्ति और भक्ति से सभी को प्रभावित किया। गरुड़ की भक्ति और भूमिका गरुड़ की कथा भगवान विष्णु के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और समर्पण को दर्शाती है। वे विष्णु के वाहन के रूप में उनके साथ सदैव रहते हैं और उनकी सेवा में समर्पित रहते हैं। गरुड़ का प्रतीकत्व शक्ति, भक्ति, और कर्तव्यनिष्ठा का आदर्श है। उनकी कथा हमें यह सिखाती है कि किसी भी कठिनाई को अपने साहस और समर्पण से पार किया जा सकता है। उपसंहार गरुड़ की पौराणिक कथा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमें जीवन में शक्ति, समर्पण और कर्तव्यपालन के महत्वपूर्ण गुणों का महत्व भी समझाती है। गरुड़ की कथा भारतीय पौराणिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है और उनकी भक्ति और साहस की कथा आज भी प्रेरणा स्रोत बनी हुई है। यह भी पढ़ेंI Facebook पर भी follow करेंI
Shailputri: माँ शैलपुत्री की कथा
Shailputri: माँ शैलपुत्री की पौराणिक कथा भारतीय संस्कृति और धार्मिकता में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। वह देवी दुर्गा के नौ रूपों में से प्रथम रूप हैं और उनकी पूजा नवरात्रि के प्रथम दिन की जाती है। माँ शैलपुत्री की कथा उनके पूर्व जन्म से आरम्भ होती है, जब वह राजा दक्ष की पुत्री सती थीं। सती और भगवान शिव सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। राजा दक्ष, जो सती के पिता थे, भगवान शिव से नाराज थे। उन्होंने एक बड़ा यज्ञ किया और सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया। सती ने जब यह सुना, तो वह अपने पति शिव के मना करने के बावजूद अपने पिता के यज्ञ में गईं। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि यज्ञ में उनके पति का अपमान किया जा रहा है और उनके लिए कोई आसन नहीं रखा गया है। इस अपमान से दुखी होकर सती ने यज्ञ कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए। माँ शैलपुत्री( Shailputri) का जन्म सती के इस बलिदान के बाद, भगवान शिव ने तांडव नृत्य किया और सती के शरीर को उठाकर पूरे ब्रह्मांड में घूमने लगे। भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर दिया, जिससे वह शांत हो सके। इन टुकड़ों से 51 शक्तिपीठों की स्थापना हुई। सती ने फिर से हिमालय के राजा हिमावन और रानी मैनावती के घर जन्म लिया। इस जन्म में उनका नाम शैलपुत्री पड़ा, जिसका अर्थ है ‘पर्वत की पुत्री’। माँ शैलपुत्री को पार्वती और हेमवती भी कहा जाता है। विवाह और तपस्या अपने पिछले जन्म की स्मृतियों के साथ, शैलपुत्री ने भगवान शिव को पुनः प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। उन्होंने कठोर वनवास किया और भगवान शिव की आराधना में लीन रहीं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया और इस प्रकार शैलपुत्री पुनः पार्वती बनकर शिव की संगिनी बन गईं। माँ शैलपुत्री (Shailputri) की स्वरूप माँ शैलपुत्री का वाहन वृषभ (बैल) है, इसलिए उन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल का फूल है। यह स्वरूप प्रकृति की समृद्धि और शांति का प्रतीक है। त्रिशूल शक्ति और साहस का प्रतीक है, जबकि कमल जीवन के आध्यात्मिक और पवित्र पक्ष को दर्शाता है। धार्मिक महत्त्व माँ शैलपुत्री की पूजा नवरात्रि के प्रथम दिन की जाती है। इस दिन भक्तगण अपने मन और शरीर को शुद्ध करके माँ की पूजा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि माँ शैलपुत्री की कृपा से व्यक्ति को जीवन में स्थिरता, शांति और संतुलन प्राप्त होता है। उनके आशीर्वाद से साधक को आध्यात्मिक और मानसिक शांति मिलती है और वह जीवन के कष्टों से मुक्त होता है। कथा का सामाजिक और आध्यात्मिक संदेश माँ शैलपुत्री की कथा से कई महत्वपूर्ण संदेश मिलते हैं। सबसे प्रमुख संदेश है नारी शक्ति का सम्मान और उसका आत्म-सम्मान। सती के रूप में उन्होंने अपने सम्मान के लिए प्राण त्याग दिए और शैलपुत्री के रूप में उन्होंने कठोर तपस्या के माध्यम से अपने उद्देश्य को प्राप्त किया। यह दर्शाता है कि नारी में अद्भुत शक्ति और संकल्प होता है। इसके अलावा, यह कथा समर्पण और भक्ति का भी संदेश देती है। शैलपुत्री की भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और तपस्या यह सिखाती है कि सच्चे प्रेम और समर्पण से किसी भी कठिनाई को पार किया जा सकता है। पूजन विधि नवरात्रि के पहले दिन, भक्त माँ शैलपुत्री की पूजा विशेष रूप से करते हैं। इस दिन घर को साफ-सुथरा करके माँ की मूर्ति या चित्र स्थापित किया जाता है। एक कलश की स्थापना की जाती है और उसमें जल, सुपारी, फूल और सिक्के डालकर उसे पवित्र किया जाता है। इसके बाद माँ शैलपुत्री की आरती और मंत्रोच्चारण करके उनकी पूजा की जाती है। मंत्र: इस मंत्र का जाप करने से भक्तों को माँ की कृपा प्राप्त होती है और उनकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। उपसंहार माँ शैलपुत्री (Shailputri) की कथा भारतीय धार्मिकता और संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनकी पूजा और आराधना से भक्तगण अपनी समस्याओं से मुक्ति पाते हैं और जीवन में शांति और संतुलन प्राप्त करते हैं। यह कथा हमें यह सिखाती है कि किस प्रकार समर्पण, भक्ति और नारी शक्ति को सम्मान देकर हम अपने जीवन को सफल और सुखमय बना सकते हैं। माँ शैलपुत्री के दिव्य आशीर्वाद से हम सभी को जीवन में स्थिरता, समृद्धि और आध्यात्मिक शांति प्राप्त हो। यह भी पढ़ें I You Tube Channel को Subscribe अवश्य करें I
नवरात्रि में कैसे करें माँ दुर्गा को प्रसन्न ?
सनातन धर्म में नवरात्रि एक प्रमुख पर्व है जो माता दुर्गा की पूजा और महायज्ञ के माध्यम से मनाया जाता है। यह पर्व भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व रखता है नवरात्रि का पर्व सनातन धर्म में माँ दुर्गा की पूजा के रूप में माना जाता है और इसे भारत भर में उत्साह से मनाया जाता है। यह पर्व आमतौर पर चैत्र नवरात्रि और शरद नवरात्रि में मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान, लोग नौ दिनों तक निराहार व्रत रखते हैं और देवी दुर्गा की पूजा करते हैं। प्रतिदिन अलग-अलग रूपों में देवी की पूजा की जाती है, जैसे कि शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ रूप माता दुर्गा के नौ अवतारों को प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी शक्ति और सामर्थ्य की पूजा की जाती है। नवरात्रि का महत्व यह है कि इसके माध्यम से हम मां दुर्गा की भक्ति करते हैं और उनकी कृपा और आशीर्वाद को प्राप्त करते हैं। इस पर्व के माध्यम से हम सात्त्विकता, शक्ति, और निर्मलता की प्राप्ति का प्रयास करते हैं, जो हमें धार्मिक और आध्यात्मिक उत्थान में सहायता करता है। इस दौरान, लोग मंदिरों में जाकर देवी की मूर्ति की पूजा करते हैं, भजन की गायन करते हैं और महिलाएं विशेष रूप से नवरात्रि के नौ दिनों के उपासना करती हैं। यह पर्व धार्मिक और सामाजिक आयोजनों का भी अवसर होता है, लोग बड़े- बड़े पंडालों और मंदिरों में भी भव्य प्रवचन, कथाएँ और संगीत समारोह का आयोजन करते हैं जिससे लोगों को एक-दूसरे के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। सामाजिक रूप से, नवरात्रि का उत्सव लोगों को एक साथ जोड़ता है और सामूहिक रूप से उत्साह, सामाजिक सद्भाव, और धार्मिक भावना को बढ़ाता है। नवरात्रि के अंत में, दशमी के दिन या दुर्गा दशमी के रूप में, लोग माँ दुर्गा के प्रति अपना आभार और भक्ति प्रकट करते हैं। इस दिन भजन की ध्वनि, आरती की धुन और मंदिरों में ध्वजारोहण की ध्वनि सुनाई जाती है। इस प्रकार, नवरात्रि का पर्व माँ दुर्गा की पूजा और भक्ति का एक महान उत्सव है जो धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। नवरात्रि में जौ बोने का विधान है, जौ बोने के लिए ऐसा पात्र लें जिसमें मिट्टीभरने के बाद कलश रखने के लिए जगह बच जाए, एक साफ स्थान पर एक पाटी या चौकी लगाकर उस पर लाल कपडा बिछाकर इस पात्र को रख देना चाहिए, अब एक मिट्टी का कलश लेकर उसे अच्छे से साफ़ करके, जिस पात्र में जौ बोये गए हैं उसके ऊपर रख दें और कलश को शुद्ध जल से भर दें और थोडा गंगाजल भी मिला दें, कलश के गले में मौली बांधकर रोली से स्वस्तिक बना दें। कलश के अंदर फूल, इत्र, साबुत सुपारी, दूर्वा डाल दें। पाँच आम या अशोक के पत्ते लेकर कलश में डालकर कलश को किसी पात्र से ढक दें और इस पात्र में अक्षत भरकर इसके ऊपर एक नारियल लाल कपडे में लपेटकर रख दें। ध्यान रहे नारियल का मुख आपकी तरफ होना चाहिए। अब माँ दुर्गा की प्रतिमा या फोटो को चौकी पर स्थापित करें, माँ का आह्वान करें, दीप, धूप, फल- फूल, नैवेद्य समर्पित करें, माँ से अपने सभी कष्ट हरने और सभी मनोकामनाएं पूरी करने का निवेदन करें, इसके पश्चात आरती करें और प्रसाद वितरित करें। इन नौ दिनों में दुर्गा चालीसा का पाठ करने से मानसिक शांति मिलती है। इसलिए माँ दुर्गा चालीसा का पाठ अवश्य ही करना चाहिए। हमारे फेसबुक पेज से भी जुड़िये
Shri Durga Chalisa Path: श्री दुर्गा चालीसा पाठ से माँ दुर्गा होंगी प्रसन्न
माँ दुर्गा का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन कीजिये श्री दुर्गा चालीसा पाठ Durga Chalisa : श्री दुर्गा चालीसा पाठ – श्री दुर्गा चालीसा के नित्य पाठ से माँ दुर्गा आपके सभी कष्टों का निवारण कर आप पर विशेष कृपा करेंगी || श्री दुर्गा चालीसा || नमो नमो दुर्गे सुख करनी।नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी।तिहूं लोक फैली उजियारी॥ शशि ललाट मुख महाविशाला।नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ रूप मातु को अधिक सुहावे।दरश करत जन अति सुख पावे॥ तुम संसार शक्ति लै कीना।पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला।तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ प्रलयकाल सब नाशन हारी।तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें।ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ रूप सरस्वती को तुम धारा।दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥ धरयो रूप नरसिंह को अम्बा।परगट भई फाड़कर खम्बा॥ रक्षा करि प्रह्लाद बचायो।हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं।श्री नारायण अंग समाहीं॥ क्षीरसिन्धु में करत विलासा।दयासिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी।महिमा अमित न जात बखानी॥ मातंगी अरु धूमावति माता।भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी।छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ केहरि वाहन सोह भवानी।लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर खड्ग विराजै।जाको देख काल डर भाजै॥ सोहै अस्त्र और त्रिशूला।जाते उठत शत्रु हिय शूला॥ नगरकोट में तुम्हीं विराजत।तिहुँलोक में डंका बाजत॥ शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे।रक्तन बीज शंखन संहारे॥ महिषासुर नृप अति अभिमानी।जेहि अघ भार मही अकुलानी॥ रूप कराल कालिका धारा।सेन सहित तुम तिहि संहारा॥ परी गाढ़ सन्तन पर जब जब।भई सहाय मातु तुम तब तब॥ आभा पुरी अरु बासव लोका।तब महिमा सब रहें अशोका॥ ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥ प्रेम भक्ति से जो यश गावें।दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई।जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥ जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥ शंकर आचारज तप कीनो।काम क्रोध जीति सब लीनो॥ निशिदिन ध्यान धरो शंकर को।काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥ शक्ति रूप का मरम न पायो।शक्ति गई तब मन पछितायो॥ शरणागत हुई कीर्ति बखानी।जय जय जय जगदम्ब भवानी॥ भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥ मोको मातु कष्ट अति घेरो।तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥ आशा तृष्णा निपट सतावें।रिपु मुरख मोही डरपावे॥ शत्रु नाश कीजै महारानी।सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥ करो कृपा हे मातु दयाला।ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।। जब लगि जियऊं दया फल पाऊं।तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥ श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।सब सुख भोग परमपद पावै॥ देवीदास शरण निज जानी।करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥ ॥इति श्रीदुर्गा चालीसा सम्पूर्ण॥ माँ दुर्गा सभी भक्तों पर कृपा करती हैं, जो मनुष्य माँ दुर्गा का नाम नियमित रूप से लेता है उसके सभी दुखों का नाश करती हैं| प्रातः जल्दी उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर माँ दुर्गा की प्रतिमा या फोटो के सामने देशी घी का दीपक जलाकर, लाल रंग के फूल माँ को समर्पित करके 11 बार श्री दुर्गा चालीसा पाठ नियमित करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं और मनोवांछित फल प्रदान करती हैं| माँ दुर्गा की आरधना सच्चे मन और पूरी श्रद्धा के साथ करनी चाहिए, पवित्रता का व्रत धारण करना चाहिए, इस चालीसा में सभी दुखों का नाश करने की शक्ति है माँ दुर्गा चालीसा का पाठ करने मात्र से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है| श्री दुर्गा चालीसा पाठ ध्यान, श्रद्धा, और भक्ति के साथ करें तथा माँ दुर्गा की कृपा और आशीर्वाद को प्राप्त करें। नवरात्रि के पावन पर्व में माँ दुर्गा चालीसा का नियमित पाठ करें और माँ की कृपा प्राप्त करें।
माँ दुर्गा के 108 नामों के जाप से मिलेगी समस्त दुखों से मुक्ति
माँ दुर्गा के 108 नाम माँ दुर्गा के 108 नाम इस प्रकार हैं:- माँ दुर्गा समस्त कष्टों को हरने वाली हैं, अपने भक्तों पर कृपा करने वाली हैंI जो मनुष्य सच्चे मन से माँ दुर्गा के इन नामों का जाप करता है और हमेशा माँ दुर्गा का भजन पूजन करता है सभी विपत्तियों से मुक्त होकर सुखी जीवन व्यतीत करता हैI यह भी जानिए:-